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________________ २६३ सम्यक्-श्रुत उससे कम अर्थात् कुछ कम दशपूर्व और नव आदि पूर्व का ज्ञान होने पर भजना है अर्थात् सम्यक्-श्रुत हो और न भी । इस प्रकार यह सम्यक्-श्रुत का वर्णन पूरा हुआ ।सूत्र ४१॥ टीका-इस सूत्र में सम्यक-श्रुत का विश्लेषण किया गया है। इससे हमें अनेक महत्त्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। वे ही संकेत आगे चलकर प्रश्न का रूप धारण कर लेते हैं। जैसे कि सम्यक्-श्रुते के प्रणेता कौन हो सकते हैं ? सम्यक्-श्रुत किस को कहते हैं ? गणिपिटक का क्या अर्थ है ? आप्त किसे कहते हैं ? इन सब का उत्तर विवेचन पूर्वक क्रमशः दिया जाता है। ___सम्यक्-श्रुत के प्रणेता देवाधिदेव अरिहन्त भगवान् हैं। अरिहन्त शब्द गुणवाचक है, न कि व्यक्तिवाचक । यदि किसी का नाम अरिहन्त है तो उसका नामनिक्षेप यहां अभिप्रेत नहीं है । यहां अरिहन्त के चित्र या प्रतिमा आदि स्थापना निक्षेप से भी प्रयोजन नहीं है । भविष्य में जिस जीव ने अरिहन्त पद प्राप्त करना है या जिन अरिहन्तों ने शरीर का परित्याग कर सिद्ध पद प्राप्त कर लिया है, ऐसे परित्यक्त शरीर जो कि द्रव्य निक्षेप के अन्तर्गत हैं, वे भी सम्यक्-श्रुत के प्रणेता नहीं हो सकते । अतः जो भावनिक्षेप से अरिहन्त हैं, वे ही सम्यक्-श्रुत के प्रणेता होते हैं। भाव अरिहन्त कौन होते है ? इसे . सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने सात विशेषण दिए हैं, जैसे कि १. अरिहन्तेहिं जिन्होंने राग-द्वेष काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, माया, मल-आवरण,-विक्षेप, और घनघाति कर्मों की सत्ता ही निर्मूल करदी है, ऐसे उत्तम पुरुष जीवन्मुक्त भाव अरिहन्त कहलाते हैं, जो इन्सान से साकार-भगवान् बन गए हैं, उन्हें दूसरे शब्दों में भाव तीर्थकर भी कहते हैं । _२. भगवन्तेहिं-भगवान् शब्द, साहित्य में बहुत ही उच्चकोटि का है अर्थात् जिस महान् आत्मा में सम्पूर्ण ऐश्वर्य, निःसीम उत्साह-शक्ति, त्रिलोक व्यापी-यश, सम्पूर्ण श्री-रूप-सौन्दर्य, सोलह कलापूर्णधर्म, उद्देश्यपूर्ति के लिए किया जाने वाला अनथक परिश्रम, ये सब पाए जाएं, उसे भगवान् कहते हैं । भगवन्त शब्द सिद्धों के लिए भी प्रयुक्त होता है तो क्या वे भी सम्यक्-श्रुत के प्रणेता हो सकते हैं ? इस शंका का निराकरण इस प्रकार किया जाता है-अनादि सिद्धों के रूपमात्र का सर्वथा अभाव है, अशरीरी होने से, उनमें समग्ररूप कहां? शरीर की निष्पत्ति रागादि से होती है, अतिशायी रूप एवं सौन्दर्य सशरीरी में ही हो सकता है, अशरीरी में नहीं । सम्पूर्ण प्रयत्न भी सशरीरी ही कर सकता है, अशरीरी नहीं। अत: सिद्ध हुआ कि सिद्ध भगवान श्रुत के प्रणेता नहीं हैं और भगवान् शब्द का उचित प्रयोग यहां अरिहन्तों के लिए ही किया गया है। ____३. उप्पएण-नाणदसणधरेहि-उत्पन्न ज्ञानदर्शन के धारण करनेवाले । ज्ञान दर्शन तो अध्ययन और अभ्यास से भी हो सकता है । अत: यहां उत्पन्न विशेषण जोड़ा है । यहां शंका हो सकती है जो तीसरा विशेषण है, वही पर्याप्त है, अरिहन्त-भगवान् ये दो विशेषण क्यों जोड़े हैं ? इसका उत्तर यह है कि तीसरा विशेषण सामान्य केवली में भी पाया जाता है, वे सम्यक्-श्रुत के प्रणेता नहीं होते । अतः यह विशेषण पहले दोनों पदों की पुष्टि करता है। जो एक तथा अनादि विशुद्ध परमेश्वर है, उसमें यह विशेषण घटित नहीं होता, वह ज्ञान-दर्शन का धरता हो सकता है । किन्तु उत्पन्न हो गया है ज्ञान-दर्शन जिनमें, यह विशेषण उनमें ही पाया जाता है, जिनके ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हो गए हैं। ४. तेलुक्कनिरिक्खियमहियपूइएहिं–तीन लोक में रहने वाले असुरेन्द्रों, नरेन्द्रों तथा देवेन्द्रों के द्वारा
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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