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सम्यक्-श्रुत अर्थात् वह ज्ञान ही नहीं है, जिसके प्रकाशित होने से राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-लोभ, मोह ठहर सके ? भला सूर्य के उदय होने पर क्या अन्धकार ठहर सकता है ? कदापि नहीं। मिथ्यादृष्टि असंझी कहलाते हैं, क्योंकि मिथ्याश्रत के क्षयोपशम से असंज्ञी होता है। यह दृभिवादोपदेश की अपेक्षा से संज्ञी और असंज्ञीश्रत का वर्णन किया गया है।
यदि इस स्थान पर यह शंका की जाए कि पहले सूची-कटाह न्याय से हेतु-उपदेश के द्वारा संज्ञीश्रुत एवं असंज्ञी श्रुत का उल्लेख करना चाहिए था, क्योंकि इसका विषय भी अल्प है, हेतु-उपदेश सबसे अशुद्ध एवं अप्रधान है । तदनन्तर दीर्घकालिको उपदेश का वर्णन अधिक उचित प्रतीत होता है, फिर सूत्रकार ने इस क्रम को छोड़कर उत्क्रम की शैली क्यों ग्रहण की ?
इसके उत्तर में यह कहा जाता है कि सरकार का विज्ञान सर्वतोमुखी होता है। आगमों में यत्र-तत्र सर्वत्र दीर्घ कालिको उपदेश के द्वारा संज्ञी और असंज्ञी का वर्णन मिलता है, क्योंकि दीर्घकालिकी
उपदेश प्रधान है, और हेतु-उपदेश अप्रधान, जैसे कि कहा भी है___ "सरिणत्ति असरिणत्ति य, सन्ध सुए कालिश्रोवए सेणं । पायं संववहारो कीरइ, तेणाइओ स को॥"
यदि सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाए तो आत्मविकास के लिए सर्वप्रथम अत्यन्तोपयोगी दीर्घकालिकी . उपदेश से संज्ञी का होना अनिवार्य है। जो सम्यक्त्व के अभिमुख हैं, ऐसे संज्ञी जीव पहले भेद में समाविष्ट
हैं । जिन्होंने सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है और सम्यक्त्व अवस्था में ही हैं, ऐसे जीव दृष्टिवादोपदेश में समाविष्ट हैं । जो एकान्त मिथ्यादृष्टि हैं, वे हेतुवादोपदेश में अन्तर्भूत हो जाते हैं। जो कालिकी-उपदेश से संज्ञी हैं, वे हेतु-उपदेश से संज्ञी कहलाते हैं । दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षा से पूर्वोक्त दोनों प्रकार के संज्ञी, असंज्ञी ही हैं । निश्चय में सम्यग्दृष्टि ही संज्ञी हैं। सूत्र व्यवहार में दीर्घकालिकी-उपदेश से समनस्क सम्यक्त्वाभिमुख जीव संज्ञी हैं। शेष अमनस्क जीव असंज्ञी कहलाते हैं । लोक-व्यवहार में चलने-फिरने वाले सूक्ष्म-स्थूल, कीटाणु से लेकर हाथी, मच्छ आदि तक, तिर्यंच मनुष्य, नारकी-देव सभी हेतु उपदेश से संज्ञी हैं । इसकी दृष्टि में असंज्ञी तो केवल पाँच स्थावर ही हैं । उपर्युक्त कथन से यह सिद्ध हुआ कि संसार में जितने भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व हैं, उन सभी में श्रुत विद्यमान है । भले ही वे असंज्ञी ही क्यों न हों, फिर भी श्रुत उनमें यत् किचित् होता ही है ।।मूत्र ४०॥
५. सम्यक्श्रुत मूलम्-से किं तं सम्मसुधे ? सम्मसुग्रं जं इमं अरहतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णनाणदंसणधरेहि, तेलुक्क निरिक्खिअ-महिअ-पूइएहिं, . तीय-पडुप्पण्ण-मणागयजाणएहिं, सव्वण्णूहि, सव्वदरिसीहिं, पणीधे दुवालसंगं गणि-पिडगं, तं जहां
१. आयारो, २. सूयगडो, ३. ठाणं, ४. समवायो, ५. विवाहपण्णत्ती, ३. नायाधम्मकहाओ, ७. उवासगदसाओ, ८. अंतगडदसायो, ६. अणुत्तरोववाइयदसायो, १०. पण्हावागरणाइं, ११. विवागसुग्रं, १२. दिठिवानो, इच्चेअं दुवालसंगं गणिपिडगं–चोदसपुव्विस्स सम्मसुग्रं, अभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसु, तेण परं भिण्णे सु भयणा, से तं सम्मसुग्रं ॥सूत्र ४१।।