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________________ . . नन्दीसूत्रम् जिस प्रकार मनोलब्धि, स्वल्प, स्वल्पतर और स्वल्पतम होती है, उसी प्रकार अस्पष्ट, अस्पष्टतर और अस्पष्टतम अर्थ की प्राप्ति हो सकती है । वैसे ही संज्ञी पंचेन्द्रिय से सम्मूछिम पंचेन्द्रिय में अस्पष्ट ज्ञान होता है, उससे चतुरिन्द्रिय में न्यून, त्रीन्द्रिय में कुछ कम और द्वीन्द्रिय में अस्पतर होता है। एकेन्द्रिय में अस्पष्टतम अर्थ की प्राप्ति हो सकती है । अतः असंज़िश्रुत होने से ये सब असंज्ञी जीव कहलाते हैं । हेतु-उपदेश-जो बुद्धिपूर्वक स्वदेह पालन के लिए इष्ट आहार आदि में प्रवृत्ति और अनिष्ट आहार आदि से निवृत्ति पाता है, वह हेतु उपदेश से संज्ञी कहा जाता है, इससे विपरीत असंज्ञी । इस दृष्टि से चार त्रस संज्ञी हैं और पांच स्थावर असंज्ञी । जैसे गौ-बैल आदि पशु अपने घर स्वयमेव आ जाते हैं, मधुमक्खी इतस्तत: मकरन्द पान कर पुनः अपने स्थान में पहुंचजाती है, निशाचर, मच्छर आदि जीव दिन में छिपे रहते हैं, रात को बाहर निकलते हैं। मक्खियाँ भी सायंकाल होने पर सुरक्षित स्थान में बैठ जाती हैं, वे धूप से छाया में और छाया से धूप में आते-जाते हैं, दुःख से बचने का प्रयास करते हैं, 'वे संज्ञी हैं। और जिन जीवों के बुद्धिपूर्वक इष्ट अनिष्ट में प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं होती, वे असंज्ञी, जैसे-वृक्ष, लता, पाँच स्थावर । दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो पांच स्थावर ही असंज्ञी होते हैं, शेष सब संज्ञी । इस विषय में भाष्यकार का भी यही अभिमत है, जैसे कि - "जो पुण संचिंतेडे, इवाणिढेिसु विसयवस्थूसुं। . वतंति नियत्तंति य, सदेह परिपालण हे ॥ पाएण संपइ रिचय, कालम्मि न याइ दीहकालण्णू । ते हेउवायसन्नी, निच्चिटठा होति असरणी॥ इसका भाव यह है कि ईहा आदि चेष्टा द्वारा संज्ञी और अचेष्टा द्वारा असंज्ञी जाने जाते है । "अन्यत्रापि हेतूपदेशेन संज्ञित्वमाश्रित्योक्तम् कृमिकीटपतङ्गायाः, समनस्काः जंगमाश्चतुर्भेदाः । अमनस्काः पंचविधाः, पृथिवीकायादयो जीवाः ॥" इससे भी उपर्युक्त दृष्टिकोण की पुष्टि होती है। - दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी और असंज्ञी दृष्टिवादोपदेश--दृष्टि दर्शन का नाम है-सम्यग्ज्ञान का नाम संज्ञा है, ऐसी संज्ञा जिसके हो, वह संज्ञी कहलाता है। "संज्ञानं संज्ञा–सम्यग्ज्ञानं तदस्यास्तीति संज्ञी-सम्यग्दृष्टिस्तस्य यच्छ तं, तत्संज्ञिश्रुतं सम्यक् श्रुतमिति।" जो सम्यग्दृष्टि क्षयोपशम ज्ञान से युक्त है, वह दृष्पिवादोपदेश से संज्ञी कहलाता है। वह यथाशक्ति राग आदि भाव शत्रुओं के जीतने में प्रयत्नशील होता है । वस्तुतः हिताहित, प्रवृत्ति-निवृत्ति सम्यग्दर्शन के बिना नहीं हो सकती, जैसे कि कहा भी है "तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणाः। तमसः कुतोऽस्ति शक्ति-दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥"
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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