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संज्ञिश्रुत-अशि
संज्ञी, इस प्रकार उपलब्ध होता है । जिस प्राणी की अभिसंधारणपूर्विका करण - शक्ति - विचारपूर्वक क्रिया करने में प्रवृत्ति नहीं है, वह असंज्ञी - इस प्रकार उपलब्ध होता है । इस प्रकार हेतूपदेश से संज्ञी कहा जाता है ।
३. दृष्टिवाद - उपदेश से संज्ञीश्रुत किस प्रकार है ? दृष्टिवाद- उपदेश की अपेक्षा से संज्ञिश्रुत के क्षयोपशम से संज्ञी - इस प्रकार कहा जाता है, असंज्ञिश्रुत के क्षयोपशम से असंज्ञी, ऐसा उपलब्ध होता है । यह दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी है । इस प्रकार संज्ञिश्रुत है । इस तरह असंज्ञित पूर्ण हुआ || सूत्र ४० ॥
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टीका - इस सूत्र में संज्ञिश्रुत और असंज्ञिश्रुत की परिभाषा बतलाई है। जिसके संज्ञा हो, वह संज्ञी और जिसके संज्ञा न हो, वह असंज्ञी कहलाता है । संज्ञी और असंज्ञी तीन प्रकार के होते हैं, न कि एक ही प्रकार के । इसके तीन भेद वर्णन किए हैं- दीर्घकालिकी उपदेश, हेतुपदेश और दृष्टिवाद - उपदेश, इन की अलग-अलग व्याख्या सूत्रकार स्वयं करते हैं, जैसे कि
दीर्घकालिक उपदेश - जिसके ईहा सदर्थ के विचारने की बुद्धि है । अपोह - निश्चयात्मक विचारणा है । मार्गणा - अन्वयधर्मान्वेषण करना । गवेषणा - व्यतिरेक धर्म स्वरूप पर्यालोचन । चिन्ता - यह कार्य कैसे 'हुआ ? वर्तमान में कैसे हो रहा है और भविष्य में कैसे होगा ? इस प्रकार के विचार विमर्श से वस्तु के स्वरूप को अधिगत करने की शक्ति है, उसे संज्ञी कहते हैं । जो गर्भज, औपपातिक देव और नारकी, मन:पर्याप्त से सम्पन्न हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं । कारण कि त्रैकालिक विषयक चिन्ता विमर्श आदि उन्हीं के संभव हो सकता है । भाध्यकार भी इसी मान्यता की पुष्टि करते हैं, जैसे कि
.१ "इह दीहकालिगी कालिगित्ति, सण्णा जया सुदीहंपि । संभरइ भूयमेस्सं चितेह य, किरणु कायव्वं ? |
कालिय सन्नित्ति तो जस्स मई, सोय तो मणो जोग्गे । खंधेऽते घेत्तु, मन्नइ तल्लद्धि संपत्तो ॥ "
इसकी व्याख्या ऊपर लिखी जा चुकी है । जिस प्रकार चक्षु होने पर प्रदीप के प्रकाश से अर्थ स्पष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मनोलब्धि सम्पन्न मनोद्रव्य के आधार से विचार विमर्श आदि द्वारा जो वस्तु तत्त्व को भली भाँति जानता है, वह संज्ञी और जिसे मनोलब्धि प्राप्त नहीं है, उसे असंज्ञी कहते हैं । असंज्ञी में, समूछम पंचेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रयजाति, त्रीन्द्रियजाति. द्वीन्द्रियजाति के जीवों का अन्तर्भाव हो जाता है । शंका पैदा होती है कि सूत्र में जब कालिकी उपदेश तब दीर्घकालिक उपदेश कैसे है ? इसके उत्तर में कहा जाता है कि भाष्यकर ने भी दीर्घकालिकी ही लिखा है । वृत्तिकार ने कारण बताया है - " तत्र कालिक्युपदेशेनेत्यत्रादिपदलोपाद्दीर्घकालिक्युपदेशेने तिद्रष्टव्यम् ।"
१. इह दीर्घकालिकी, कालिकीति संज्ञा यया सुदीर्घमपि ।
स्मरति भूतमेष्यं चिन्तयति च कथं नु कर्त्तव्यम् ||
कालिकी संज्ञीति, सको यस्य मतिः स च ततो मनोयोग्यान् । स्कन्धाननन्तान् गृहीत्वा मन्यते तल्लब्धि सम्पन्नः ||