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नन्दी सूत्रम्
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अक्षर, नो-इन्द्रिय-लब्धि - अक्षर । यह लब्धि - अक्षरश्रुत है । इस प्रकार यह अक्षरश्रुत का वर्णन है ।
२. अनक्षरश्रुत
मूलम् - से किं तं अणक्खरं सुनं ! अणक्खर -सुगं प्रणेगविहं पण्णत्तं तं जहा १. ऊससियं - नीस सियं, निच्छूढं खासियं च छीयं च i अणक्खरं छेलिश्राई ॥ ८८ ॥
निस्सिंघिय - मणुसारं,
से तं अणक्खरसूत्रं ॥ सूत्र ३६ ॥
छाया - २. अथ किं तदनक्षर - श्रुतम् ? अनक्षर श्रुतमनेकविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा—
१. उच्छ्वसितं - निश्श्वसितं निष्ठ्यूतं काशितञ्च क्षुतञ्च । निस्सिङ्घित- मनुस्वार - मनक्षरं सेटितादिकम् ॥ ८८ ॥
तदेतदक्षर- श्रुतम् ॥सूत्र ३६ ॥
से किं तं श्रणक्खर ! -अथ वह अनक्षरश्रुत कितने प्रकार का है ? अणक्खर सुचं - अनक्षरश्रुत अणेगविहं – अनेक प्रकार का पण्णत्तं - प्रतिपादन किया गया है, तं जहा -- जैसे
ऊससियं— उच्छ्वसितं नीससियं - निच्छ्वसित, निच्छूढं थूकना और खासियं च-खांसना, छीयं च तथा छींकना, निस्सिंघियमणुसारं – निः सिंघना नाक साफ करने की ध्वनि और अनुस्वार की भान्ति चेष्टा करना, छेलियाइयं-सेटित आदिक अणक्खरं- अनक्षर श्रुत है, से तं धणक्खरसुधं - इस प्रकार यह अनक्षर श्रुत है ।
२. शिष्य ने फिर पूछा - वह अनक्षरश्रुत कितने प्रकार का है ?
गुरुजी ने उत्तर दिया – अनक्षरश्रुत अनेक तरह से वर्णित है, जैसे—ऊपर को श्वास लेना, नीचे श्वास लेना, थूकना, खाँसना, छींकना, निःसिंघना अर्थात् नाक साफ करने की ध्वनि और अनुस्वार युक्त चेष्टा करना । यह सभी अनक्षरश्रुत है || सूत्र ३६||
से टीका - उपरोक्त सूत्र में अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत का वर्णने किया गया है 'क्षर संचलने' धातु अक्षर शब्द बनता है, जैसे कि न क्षरति न चलति इत्यक्षरम् - अर्थात् ज्ञान का नाम अक्षर है, ज्ञान जीव का स्वभाव है । कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव से विचलित नहीं होता। जीव भी एक द्रव्य है, जो उसका स्वभाव तथा गुण है, वह जीव के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता। जो अन्य द्रव्यों में गुण-स्वभाव हैं, वे जीव में नहीं पाए जाते । ज्ञान आत्मा से कभी भी नहीं हटता, सुषुप्ति अवस्था में भी जीव का स्वभाव होने से वह ज्ञान रहता ही है । उस भावाक्षर के कारण श्रुतज्ञान ही अक्षर है । यहाँ भावाक्षर का कारण होने से 'अकार' आदि को भी उपचार से अक्षर कहा जाता है, अक्षर श्रुत, भावश्रुत का कारण है । भावश्रुत को लब्धि - अक्षर भी कहते हैं । संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर ये दोनों में द्रव्यश्रुत