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अक्षरभुत-अनक्षरश्रुत अन्तर्भूत होते हैं । अतः सूत्रकर्ता ने अक्षरश्रुत के तीन भेद किए हैं । जैसे कि संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर।
संज्ञाक्षर-जो अक्षर की आकृति, संस्थान, बनावट है, जिसके द्वारा यह जाना जाए कि यह अमुक अक्षर है। वह संज्ञाक्षर कहलाता है। विश्व में जितनी लिपियां प्रसिद्ध हैं, उदाहरण के रूप में जैसे कि , . आ, इ ई, उ ऊ इत्यादि । A. B. C. D इत्यादि । इसी प्रकार अन्य-अन्य लिपियों के विषय भी समझना चाहिए।
व्यंजनाक्षर-जिससे अकार आदि अक्षरों के अर्थ का स्पष्ट बोध हो, उस प्रकार से उच्चारण करना व्यंजनाक्षर है । संसार भर में जितनी भाषाएँ हैं, जितनी लिपियां हैं, उनके उच्चारण करने के ढंग सब अलग २ हैं। हिन्दी की वर्णमाला, ऊर्दू की, इंगलिश की, पंजाबी की, बंगला की, गुजराती की, बहियों की, जितनी भी लिपियाँ हैं, उनके उच्चारण करने का ढंग सबका एक नहीं है, भिन्न २ है। जहाँ छात्रों को लिपि की बनावट, लिखाई सिखाई जाती है, वहाँ उनके उच्चारण करने का ढंग भी सिखाया जाता है। कुछ अनपढ़ व्यक्ति बोल सकते हैं, परन्तु लिख नहीं सकते। कुछ अक्षरों को देखकर उसकी नकल कर सकते हैं, परन्तु उन्हें उच्चारण का ज्ञान नहीं है । कुछ लोग ऐसे भी हैं जो लिख भी सकते हैं ' और पढ़ भी सकते हैं। परन्तु वे अर्थ को नहीं समझ सकते हैं । व्यंजनाक्षर तो केवल अक्षरों के उच्चारण का नाम है । जैसे दीपक के द्वारा घटादि पदार्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे ही जिसके द्वारा अर्थ का प्रकाशन हो उसे व्यंजनाक्षर कहते हैं। जिस २ अक्षर की जो २ संज्ञा है, उस २ का उच्चारण तदनुकूल ही हो, तभी वे द्रव्याक्षर भावश्रुत के कारण बन सकते हैं, अन्यथा नहीं । अक्षरों के यथार्थ मेल से शब्द बनता है एवं पद और वाक्य बनते हैं। उनसे पुस्तकें बनकर तैयार हो जाती हैं। _ लब्ध्यक्षर-लब्धि उपयोग का नाम है। शब्द को सुन कर अर्थ का अनुभवपूर्वक पर्यालोचन करना ही लब्धि-अक्षर कहलाता है । इसी को भावश्रुत कहते हैं, क्योंकि अक्षर के उच्चारण से जो उसके अर्थ का बोध होता है, उससे भावश्रुत उत्पन्न होता है । जैसे कि कहा भी है
"शब्दादिग्रहणसमनन्तरमिन्द्रियमनोनिमित्तं शब्दार्थपर्यालोचनानुसारिशांखोऽयमित्याद्यक्षरानुविद्धं ज्ञानमुपजायते इत्यर्थः।"
___ शब्द ग्रहण होनेके पश्चात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो शब्दार्थ पर्यालोचनानुसार ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी को लब्ध्यक्षर कहते हैं।
यहां प्रश्न हो सकता है कि यह उपर्युक्त लक्षण संज्ञी जीवों में ही घटित हो सकता है, किन्तु असंज्ञी विकलेन्द्रिय आदि जीवों के अकार आदि वर्णों के सुनने व उच्चारण करने का सर्वथा अभाव ही है, तो फिर उन जीवों के लब्धि अक्षर किस प्रकार संभव हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा जाता है कि श्रोत्रेन्द्रिय का अभाव होने पर भी तथाविध क्षयोपशमभाव उन जीवों के अवश्य होता है। इसी कारण से उनको भावश्रुत की प्राप्ति होती है, वह भावश्रुत उनके अव्यक्त होता है। उन जीवों के आहारसंज्ञा,
संज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा होती है। संज्ञा तीव्र अभिलाषा को कहते हैं, अभिलाषा ही प्रार्थना है । यदि यह प्राप्त हो, तो अच्छा है । भय का कारण हट जाए तो अच्छा है, इस प्रकार की अभिलाषा अक्षरानुसारी होने से उनके भी नियमेन लब्ध्यक्षर होता है।