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श्रुतज्ञान
ईहा - सदर्थ का पर्यालोचन ।
पोह - निश्चय करना ।
विमर्श - ईहा और अवाय के मध्य में होनेवाली विचार सरणी ।
मार्गणा - अन्वय धर्मानुरूप अन्वेषण करना ।
गवेषणा - व्यतिरेक धर्म से व्यावृत्ति करना ।
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संज्ञा - पहले अनुभव की हुई और वर्तमान में अनुभव की जानेवाली वस्तु की एकता के अनुसंधान
को संज्ञा कहते हैं, जिस का दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञान भी है.
स्मृति — पहले अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण करना ।
मति - जो ज्ञान वर्तमान विषयक हो ।
प्रज्ञा - विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न यथावस्थित वस्तुगतधर्म का पर्यालोचन करना ।
बुद्धि - अवाय का अन्तिम परिणाम, इन सबका समावेश आभिनिबोधिक ज्ञानमें हो जाता है । जातिस्मरण ज्ञान भी मतिज्ञान की अपर पर्याय है । जातिस्मरण ज्ञान से उत्कृष्ट नौ (६००) सौ संज्ञी के रूप में अपने भव जान सकता है, जब मतिज्ञान की पूर्णता हो जाती है, तब वह ज्ञान नियमेन अप्रतिपाति होजाता है । वह निश्चय ही उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है । किन्तु जघन्य मध्यम मतिज्ञानी को इस भव में केवलज्ञान उत्पन्न होने की भजना है, हो और न भी हो । यह मतिज्ञान का विषय समाप्त हुआ || सूत्र ३७||
२. श्रुतज्ञान
मूलम् —से किं तं सुयनाणपरोक्खं ? सुयनाणपरोक्खं चोद्दसविहं पन्नत्तं, तं जहा—१. अक्खर-सुयं, २. अणक्खर सुयं, ३. सण्णि-सुयं, ४. असण्णि-सुयं, ५. सम्म-सुयं, ६. मिच्छ-सुयं ७. साइयं ८. अणाइयं, ६. सपज्जवसियं, १०. अपज्जवसियं, ११. गमियं, १२. अगमियं, १३. अंगपविट्ठ, १४. अणंगपविट्ठ ॥सूत्र ३८ ||
छाया - अथ किं तच्श्रुत - ज्ञानपरोक्षं ? श्रुतज्ञानपरोक्षं चतुर्दशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा२. अक्षर-श्रुतम्, २. अनक्षर श्रुतं, ३. संज्ञि श्रुतम् ४. असंज्ञि श्रुतं ५. सम्यक् श्रुतं, ६. मिथ्या श्रुतं, ७. सादिकम् ८. अनादिकम् ६. सपर्यवसितम्, १० अपर्यवसितं ११. गमिकम्, १२. अगमिकम्, १३. अङ्ग-प्रविष्टम्, १४. अनङ्ग-प्रविष्टम् || सूत्र ३८ ||
भावार्थ - शिष्य ने प्रश्न किया — गुरुदेव ! वह श्रुतज्ञान-परोक्ष कितने प्रकार का है ? गुरु ने उत्तर दिया - हे शिष्य ! श्रुतज्ञान- परोक्ष चौदह प्रकार का है । जैसे - १. अक्षरश्रुत, २. अनक्षरश्रुत, ३. संज्ञिश्रुत, ४. असंज्ञिश्रुत, ५. सम्यक् श्रुत, ६. मिध्याश्रुत, ७.