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नन्दीसूत्रम्
रूप विचार को ईहा । पदार्थों के यथार्थ निर्णय को अवाय और धारण करने को धारणा कहते हैं। किन्तु ७६वीं गाथा पाठान्तर रूप में इस प्रकार भी देखी जाती है
"अत्थाणं उग्गहणं च, उग्गह तह वियालणं ईह।
ववसायं च अवायं, धरणं पुण धारणं विति ॥" अब सूत्रकर्ता इन चारों के काल-मान के विषय में कहते हैं
अवग्रह का नैश्चयिक काल पहला समय, (जिसके दो भाग न हो सकें, अविभाज्य काल को समय कहा जाता है ।) ईहा और अवाय का कालपरिमाण अन्तर्मुहूर्त, (दो समय से लेकर कुछ न्यून ४८ मिनट पर्यन्त को अन्तर्मुहुर्त कहते हैं ।) धारणा संख्यातकाल तथा असंख्यात काल प्रमाण रह सकती है। यह कालमान आयु की दृष्टि से और भव की दृष्टि से समझना चाहिए । जैसे—किसी की आयु पल्योपम अथवा सागरोपम परिमित है । जीवन के पहले भाग में कोई विशेष शुभाशुभ कारण होगया, उसे आयु पर्यन्त स्मृति में रखना, वह धारणा कही जाती है। भव आश्रय से भी जैसे किसी को जातिस्मरण ज्ञान हो जाने से गत अनेक भवों का स्मरण हो आना, असंख्यातकाल को सूचित करता है।
श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट होने पर ही अपने विषय को ग्रहण करता है। चक्षुरिन्द्रिय बिना स्पृष्ट किए ही रूप को ग्रहण करता है । घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और सर्शनेन्द्रिय ये अपने-अपने विषय को बद्धस्पृष्ट होने पर ही ग्रहण करते हैं । इस विषय में वृत्तिकार के निम्न शब्द हैं
"तत्र स्पृष्टमित्यात्मनाऽलिङ्गितं बढ़-तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतम्-आलिजितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतमित्यर्थ ।"
१२ योजन से आए हुए शब्द को सुनना, यह श्रोत्रेन्द्रिय कि उत्कृष् शक्ति है। 'योजन से आए हुए गन्ध, रस, और स्पर्श के पुद्गलों का ग्रहण करने की घ्राण, रसना एवं स्पर्शन इन्द्रियों की उत्कृष्ट . शक्ति है । चक्षुरिन्द्रिय की शक्ति रूप को ग्रहण करने की लाख योजन से कुछ अधिक है। यह कथन अभास्वर द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए, किन्तु भास्वर द्रव्य तो २१ लाख योजन से भी देखा जा सकता है । जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गलद्रव्य को सभी इन्द्रिये अपने-अपने विषय को ग्रहण कर सकती हैं।
शब्द रूप में परिणत भाषा के पुद्गल यदि समश्रेणि में लहर की तरह फैलते हुए हमारे सुनने में आते हैं तो उसी सम श्रेणी में विद्यमान अन्य भाषा वर्गणा के पुद्गल से मिश्रित सुनने में आते हैं। यदि विश्रेणि में भाषा के पुद्गल चले जाएं, तो नियमेन अन्य प्रबल पुद्गल से टकराकर, अन्य-अन्य शब्दों से मिश्रित होकर सुनने में आते हैं। इस विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं, जैसे कि
. "भाष्यत इति भाषा-वाक शब्दरूपतया उत्सृज्यमाना द्रव्यसंततिः, सा च वर्णात्मिका भेरीभांकारादिरूपा वा द्रष्टव्या, तस्याः समाः श्रेणयः, श्रेण्यो नाम क्षेत्रप्रदेशपंक्तयोऽभिधीयन्ते, ताश्च सर्वस्यैव भाषमाणस्य षट्सु दिक्षु भिद्यन्ते यासूत्सृष्टा सती भाषा प्रथमसमय एव लोकान्तमनुधावति-इत्यादि।"
इससे भली-भांति सिद्ध हुआ कि भाषा पुद्गल मिश्र रूप में सुने जाते हैं । वे चतुःस्पर्शी भाषा के पुद्गल जब बाहिर के पुद्गलों से संमिश्र हो जाते हैं, तब वे आठ स्पर्शी हो जाते हैं ।
मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द निम्नलिखित हैं, जैसे कि