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श्रभिनिबोधिक ज्ञान का उपसंहार
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जाइ न पासइ इसमें 'न पासइ पद' दिया है, किन्तु व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में - " दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्व दव्वाइं जाणइ, पासइ" ऐसा पाठ दिया गया है। इसके विषय में वृत्तिकार अभय - देवसूरि निम्न प्रकार से लिखते हैं-.
"दव्व णं, इति द्रव्यमाश्रित्याभिनिबोधिकज्ञानविषयं द्रव्यं वाश्रित्य यदा श्रभिनिबोधिकज्ञानं तत्र श्राएसेणं ति श्रादेशः प्रकारः सामान्यविशेषरूपस्तत्र चादेशेन श्रोषतो द्रव्यमात्रतया न तु तद्गत सर्वविशेषापेक्षयेति भावः, अथवा श्रादेशेन श्रुतपरिकर्मितया सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते, ज्ञानस्यावायधारणारूपत्वात्, 'पास' ति पश्यति, अवग्रहेहापेक्षयाऽवबुध्यते, अवग्रहेहयो दर्शनत्वात् श्राह च भाष्यकार
"नाणमवायधिईओ, दंसणमिट्ठं जहोग्गहे हाओ । तह तत्तरूई सम्मं, रोइज्जइं जेण तं नाणं ॥”
तथा जं सामान्नग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं नाणं, श्रवग्रहेहे च सामान्यार्थग्रहणरूपे, श्रवाय धारणे च विशेषग्रहणस्वभावे इति । नन्वष्टाविंशति भेदमानमाभिनिबोधिकज्ञानमुच्यते, यदाह - श्रभिनिबोहियनाणे श्रट्ठावीसं हवंति पयडीओ त्ति, इह च व्याख्याने श्रोत्रादिभेदेन षड्भेदतयाऽवायधारणयोर्द्वादशविधं मति'ज्ञानं प्राप्तं तथा श्रोत्रादिभेदेन षड़भेदतयाऽर्थावग्रहईहयोर्व्यन्जनावग्रहस्य च चतुर्विधतया षोड्शविधं चतुरादिदर्शन मिति प्राप्तमिति कथं न विरोधः ? सत्यमेतत् किन्त्वविवक्षयित्वा मतिज्ञानचचुरादिदर्शनयोर्भेदं मतिज्ञानमष्टाविंशतिधोच्यते इति पूज्या व्याचक्षते इति । "
इस वृत्ति का सारांश यह है कि मतिज्ञानी सर्व द्रव्यों को अवाय और धारणा की अपेक्षा से जानता और अवग्रह तथा ईहा की अपेक्षा से देखता है, क्योंकि अवाय और धारणा ज्ञान के बोधक हैं और अवग्रह व ईहा ये दोनों दर्शन के बोधक हैं । अतः पासइ यह क्रिया ठीक ही है, किन्तु नन्दीसूत्र के वृत्तिकार यह लिखते हैं कि न पासइ से यह अभिप्राय है कि धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के सर्व पर्याय आदि को नहीं देखता । वास्तव में दोनों ही अर्थ यथार्थ हैं ।
२. क्षेत्रतः — मतिज्ञानी आदेश से सभी लोकालोक क्षेत्र को जानता है, किन्तु देखता नहीं । ३. कालतः — मतिज्ञानी आदेश से सभी काल को जानता है, किन्तु देखता नहीं ।
४. भावतः -- आभिनिबोधिकज्ञानी आदेश से सभी भावों को जानता है, किन्तु देखता नहीं । भाष्यकार ने दो गाथाओं में उक्त विषय को स्पष्ट किया है, यथा
" एसो त्ति पगारो, श्रोघाएसेण सव्वदव्वाइं । धम्मथिकाइयाई, जाणइ न उ सम्वभावेणं ॥ खेत्तं लोकालोकं, कालं सम्बद्ध महव तिविहं वा । पंचोदयाईए भावे, जं नेयमेवइयं ॥”
अतः अवग्रह, ईहा अवाय और धारणा में चारों संक्षेप से मतिज्ञान के वस्तु भेद वर्णन किए गए हैं । अर्थों के सामान्य रूप से तथा अव्यक्त रूप से ग्रहण करना अवग्रह, तत्पश्चात् पदार्थों के पर्यालोचन
१. भगवत सू० श०८, ३०२, सू० २२२ ।