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________________ २१८ नन्दीसूत्रम् स्थित जिस शब्द को श्रोता सुनता है, उसे नियमेन अन्य शब्दों से मिश्रित ही सुनता है । विधेणि व्यवस्थित शब्द को श्रोता-सुनने वाला नियम से पराघात होने पर ही सुनता है। मूलम्-६. ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । सन्ना-सई-मई-पन्ना, सव्वं आभिणिबोहियं ॥७॥ सेत्तं आभिणिबोहियनाण-परोक्खं, से तं मइनाणं ॥सूत्र३७॥ छाया-६. ईहा अपोह-विमर्शः, मार्गणा च गवेषणा । संज्ञा-स्मृतिः मति-प्रज्ञा, सर्वमाभिनिबोधिकम् ॥७॥ तदेतदाभिनिबोधिकज्ञान-परोक्षं, तदेत्न्मतिज्ञानम् ।।सूत्र ३७ ।। पदार्थ-ईहा-सदर्थ पर्यालोचन रूप, अपोह-निश्चय रूप, वीमंसा-विमर्श रूप, य-और मग्गणा-अन्वयधर्म रूप गवेसणा-व्यतिरेक धर्म रूप तथा सन्ना-संज्ञा सई-स्मृति मई-मति और पन्ना-प्रज्ञा ये सब्वं-सब प्राभिणियोहियं-आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायवाची नाम हैं । सेतं प्राभिणिबोहियनाण-परोक्खं-इस प्रकार यह मतिज्ञान का स्वरूप है। से तं मइनाणं-मतिज्ञान सम्पूर्ण हुआ। भावार्थ-ईहा-सदर्थ पर्यालोचन रूप, अपोह-निश्चयात्मकज्ञान, विमर्श, मार्गणाअन्वयधर्मरूप और गवेषणा-व्यतिरेक धर्मरूप तथा संज्ञा, स्सति, मति और प्रज्ञा ये सब आभिनिबोधिक-मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम हैं। यह आभिनिबोधिकज्ञान-परोक्ष का विवरण पूर्ण हुआ। इस प्रकार मतिज्ञान का प्रकरण सम्पूर्ण हुआ ॥सूत्र ३७॥ टीका-इस सूत्र में मतिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संक्षेप में चार भेद वर्णन किए गए हैं, जैसे १. द्रव्यतः-द्रव्य से आभिनिबोधिकज्ञानी आदेश से सभी द्रव्यों को जानता है, परन्तु देखता नहीं । प्रस्तुत प्रकरण में 'आदेश' शब्द प्रकार का वाची है, वह सामान्य और विशेषरूप, इस प्रकार दो भेदों में विभक्त है, किन्तु यहाँ पर तो केवल सामान्यरूप ही ग्रहण करना चाहिए । अतः मतिज्ञानी सामान्य आदेश के द्वारा धर्मास्तिकायादि सर्व द्रव्यों को जानता है, किन्तु कुछ विशेषरूप से भी जानता है अथवा मतिज्ञानी सूत्रादेश के द्वारा सर्व द्रव्यों को जानता है, परन्तु साक्षात् रूप से नहीं देखता है। यहाँ शंका हो सकती है कि जो सूत्र के आदेश से द्रव्यों का ज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो श्रुत-ज्ञान हुआ, किंतु यह प्रकरण है, मतिज्ञान का ? इस शंका का निराकरण करते हुए कहा जाता है कि यह श्रुत है, न तु श्रतज्ञान, क्योंकि श्रुतनिश्रित को भी मतिज्ञान प्रतिपादन किया गया है। इस विषय में भाष्यकार का भी यही अभिमत है, यथा "श्रादेसो त्ति व सुतं, सुअोवलद्धेस तस्स महनाणं। पसरह तब्भावणया, विणावि सुत्ताणुसारेणं ॥" अतः इसे मतिज्ञान ही जानना चाहिए, श्रुतज्ञान नहीं । तथा सूत्रकार ने पाएसेणं सम्वाइं दवाई
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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