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पुनः द्रव्यादि से मतिज्ञान का स्वरूप
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में आया हुआ विषय प्रयत्न से विकासोन्मुख किया जाता है, स्वतः नहीं। इस विषय में शंका उत्पन्न होती है कि कुछ एक विचारक ईहा को संशयात्मिका मानते हैं, यह कैसे ? इसका समाधान है-अवग्रह और ईहा के अन्तराल में संशय हो सकता है। ईहा तो संशयातीत विचारणा का नाम है। संशय अज्ञान रूप होने से अप्रामाणिक है, किन्तु ईहा प्रमाण की कोटि में गभित होने से ज्ञान रूप है, क्योंकि विवेक सहित विचारणा ही ईहा है ॥सूत्र ३६॥
पुनः द्रव्यादि से मतिज्ञान का स्वरूप - मूलम्-तं समासो चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा–दव्वो, खित्तो, कालो, भावो। - १. तत्थ दव्वरो णं आभिणिबोहिअनाणी आएसेणं सव्वाइं दव्वाइं जाणइ, न पासइ।
२. खेत्तो णं आभिणिबोहिअनाणी पाएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ, न पासइ। ३. कालो णं आभिणिबोहिअनाणी पाएसेणं सव्वं कालं जाणइ, न पासइ। ४. भावग्रोणं आभिणिबोहिअनाणी पाएसेणं सव्वे भावे जाणइ, न पासइ।
. छाया-सत्समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतः ।
१. तत्र द्रव्यतो आभिनिबोधिकज्ञानी-आदेशेन सर्वाणि द्रव्याणि जानाति, न पश्यति।
२. क्षेत्रत आभिनिबोधिकज्ञानी-आदेशेन सर्वं क्षेत्रं जानाति, न पश्यति । ३. कालत आभिनिबोधिकज्ञानी-आदेशेन सर्वं कालं जानाति, न पश्यति । ४. भावत आभिनिबोधिकज्ञानी-आदेशेन सर्वान् भवान् जानाति, न पश्यति ।
भावार्थ-वह आभिनिबोधिक-मतिज्ञान संक्षेप में चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे-द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भाव से । इनमें
१. द्रव्य से मतिज्ञान का धर्ता सामान्य प्रकार से सब द्रव्यों को जानता है, किन्तु देखता नहीं।
२. क्षेत्र से मतिज्ञानी सामान्यरूप से सर्व क्षेत्र को जानता है, किन्तु देखता नहीं। ३. काल से मतिज्ञानी सामन्यतः तीन काल को जानता है, किन्तु देखता नहीं। ४. भाव से मतिज्ञान वाला सामन्यतः सब भावों को जानता है, परन्तु देखता नहीं।