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________________ २४४ नन्दीसूत्रम् पहा बारह भेदों से गुणाकार करने पर २८८ भेद बनते हैं। व्यंजनावग्रह प्राप्यकारी इन्द्रियों का ही होता है। चार को उक्त बारह भेदों से गुणा करने से ४८ भेद बनते हैं। २८८ में ४८ की संख्या जोड़ने से ३३६ भेद बन जाते हैं। मतिज्ञान के जो ३३६ भेद दिखलाए हैं, ये सिर्फ स्थूल दृष्टि से ही समझने चाहिए, वैसे तो मतिज्ञान के अनन्त भेद होते हैं। अवग्रह दो प्रकार का होता है-नैश्चयिक और व्यावहारिक । नैश्चयिक अवग्रह एक समय का होता है और व्यावहारिक असंख्यात समय का । नश्चयिक अवग्रह होने से ही व्यावहारिक अवग्रह हो सकता है । विषय ग्रहण तो पहले समय में ही हो जाता है, किन्तु अव्यक्त रूप होने से संख्यातीत समयों में ज्ञात होता है । 'अ' के उच्चारण करने में भी असंख्यात समय लग जाते हैं। अनेक अक्षरों का पद और अनेक पदों का वाक्य बनता है। जब एक अक्षर के उच्चारण में भी असंख्यात समय लगते हैं, तब एक शब्द या . ... वाक्य के उच्चारण में असंख्यात समय क्यों न लगें ? यदि विषय को पहले समय में ही ग्रहण न किया होता तो दूसरा समय अकिंचित्कर ही होता । वस्त्र फाड़ने के समय जब पहली तार टूटती है, तो दूसरी भी . और तीसरी भी टूटेगी, किन्तु जब उसकी पहली ही तार नहीं टूटी, तब दूसरी तार कैसे टूटेगी ? बस यही उदाहरण अवग्रह के विषय में समझना चाहिए। पहले समय में नैश्चयिक अवग्रह से ही विषय को ग्रहण कर लिया जाता है, वही आगे चलकर विकसित हो जाता है। दूसरा उदाहरण-उचित समय में बुवाई करने पर, जब बीज को मिट्टी और पानी का संयोग हुआ, उसी समय में वह बीज उगने लग जाता है। प्रतिक्षण वह उग रहा है, किन्तु बाहिर कुछ घंटों में या दिनों में अंकुर दृष्टिगोचर होता है। बीज में अंकुर होने की तैयारी पहले समय में ही हो जाती है । जो बीज अंकुर के अभिमुख होने वाला है, परन्तु हुआ नहीं। बस इसी तरह अवग्रह भी पहले समय से चालू. होता है, उसी अव्यक्त अवस्था को अवग्रह कहते हैं । किन्हीं का अभिमत है कि जो अर्थावग्रह के अभिमुख है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं, जो ईहा के अभिमुख है, वह अर्थावग्रह कहलाता है । वास्तव में देखा जाए तो जो ग्रहण किया हुआ विषय अत्यल्प समय में ईहा के अभिमुख होता है, वह अर्थावग्रह कहलाता है । जो बहुत विलंब से ईहा के अभिमुख होता है, वह व्यंजनावग्रह कहलाता है । अर्थावग्रह पटुक्रमी होता है और व्यंजनावग्रह मन्दक्रमी । लगते दोनों में ही असंख्यात समय हैं, परन्तु असंख्यात के भी असंख्यात भेद होते हैं । कल्पना करो सौ में से दस को संख्यात और ग्यारह से लेकर १०० तक असंख्यात मान लें, तो पहला हिस्सा भी असंख्यात है और पिछला भाग भी असंख्यात है, दोनों में अन्तर बहुत है । वैसे ही अर्थावग्रह में असंख्यात समय अल्पमात्रा में लगते हैं, जब कि व्यंजनावग्रह में अधिक मात्रा में असंख्यात समय लगते हैं। किन्हीं की मान्यता है कि बहु, बहुविध, इत्यादि छ अर्थावग्रह है और अल्प, अल्पविध इत्यादि छ व्यंजनावग्रह है । क्या दोनों अवग्रहों की ऐसी परिभाषा उचित है ? नहीं, क्योंकि १२ भेद अर्थावग्रह के हैं और १२ ही व्यंजन-अवग्रह से भी सम्बन्धित हैं। क्या अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा क्रमशः होते हैं या व्यतिक्रम से भी ? जो भी ज्ञान होता है, इसी क्रम से होता है, व्यतिक्रम से नहीं। ज्ञान कभी अवग्रह तक ही सीमित रह जाता है, कभी अवग्रह, ईहा तक रह जाता है, कभी अवग्रह, ईहा और अवाय तक होकर रह जाता है और कभी अवग्रह से लेकर धारणा तक पहुंच जाता है, इसी को विकसित ज्ञान कहते हैं। यदि धारणा शक्ति दृढ़तम हो, तो वह ज्ञान पूर्णतया विकसित कहलाता है। व्यतिक्रम से ज्ञान का होना नितान्त असंभव है । अवग्रह
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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