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बहुग्राही अल्पग्राही बहुविधग्राही एकविधग्राही क्षिप्रग्राही अक्षिग्राही
अनिश्रितग्राही निचितपाही असंदिग्धग्राही संदिग्धग्राही ध्रुवग्राही अवग्राही
६ अवग्रह
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६ धारणा
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१. बहु - इसका अर्थ अनेक से है, यह संख्या और परिमाण दोनों की अपेक्षा से हो सकता है, वस्तु की अनेक पर्यायों को तथा बहुत परिमाण वाले द्रव्य को जानना या किसी बहुत बड़े परिमाण वाले विषय को जानना ।
२. अल्प - किसी एक ही विषय को, या एक ही पर्याय को स्वल्पमात्रा में जानना ।
३. बहुविध – किसी एक ही द्रव्य को, या एक ही वस्तु को, या एक ही विषय को बहुत प्रकार से जानना, जैसे वस्तु का आकार, प्रकार, रंग-रूप, लंबाई-चौड़ाई, मोटाई, उस की अवधि इत्यादि अनेक प्रकार से जानना ।
४. अल्पविध - किसी भी वस्तु को या पर्याय को जाति या संख्या आदि को अत्यल्प प्रकार से जानना, अधिक भेदों सहित न जानना ।
५. क्षिप्र - किसी वक्ता के या लेखक के भावों को यथाशीघ्र किसी भी इन्द्रिय या मन के द्वारा जान लेना । स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा अन्धकार में भी व्यक्ति को या वस्तु को पहचान लेना ।
६. अक्षिप्र - क्षयोपशम की मन्दता से या विक्षिप्त उपयोग से किसी भी इन्द्रिय या मन के विषय को अनभ्यस्तावस्था में कुछ विलंब से जानना, यथाशीघ्र नहीं ।
७. अनिश्चित — बिना ही किसी हेतु के बिना किसी निमित्त के वस्तु की पर्याय और गुण को जानना । व्यक्ति के मस्तिष्क में ऐसी सूझ बूझ पैदा होना जबकि वही बात किसी शास्त्र या पुस्तक में भी लिखी हुई मिल जाए ।
८. निश्रित - किसी हेतु, युक्ति, निमित्त, लिंग, प्रमित आदि के द्वारा जानना । एक ने शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही उपयोग की एकाग्रता से अकस्मात् चन्द्र दर्शन कर लिए दूसरे ने किसी बाह्य निमित्त से चन्द्र दर्शन किए, इन में पहला, पहली कोटि में और दूसरा दूसरी कोटी में गभित हो जाता है ।
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१. असंदिग्ध – किसी व्यक्ति ने जिस पर्याय को जाना, वह भी बिना ही संदेह के जाना, जैसे यह माल्टे का रस है, यह नारंगी का है, यह सन्तरे का रस है । यह गुलाब, गेन्दा, चम्बा, चमेली, जूही, मौरसरी, इत्यादि । स्पर्श से तथा गन्ध से अन्धकार में भी उन्हें पहचान लेना । अपने अभीष्ट व्यक्ति