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________________ :08 २५६ नन्दीसूत्रम् - मुझे जगा रहा है ? यह अवग्रह में नहीं जानता। जब ईहा में प्रवेश करता है तब विचारसरणि से उस ग्रहण किए हुए शब्द की छानवीन करता है। ऊहापोह करने से जब निश्चय की कोटि में पहुंच जाता है, तब वह जानता है कि यह अमुक का शब्द है, उसे अवाय कहते हैं । जब उस सुने हुए शब्द को संख्यात एवं असंख्यात काल तक धारण करके रखता है, तब उसे धारणा कहते हैं । प्रतिबोधक और मल्लक (मिट्टी का प्याला) इन दोनों दृष्टान्तों का सम्बन्ध यहां केवल श्रोत्रेन्द्रिय से है। उपलक्षण से घ्राण-रसना और स्पर्शन का भी समझना चाहिए। सूत्र में उवगयं पद आया है, इसका सारांश यह है कि जिस ज्ञान से आत्मा पहले अपरिचित था, वह सान आत्मपरिणत हो गया है "उपगतं भवति सामीप्येनात्मनि शब्दादिज्ञानं परिणतं भवति ।" पहले और इस हष्टन्त में जो श्रोत्रेन्द्रिय और शब्द का सूत्र में उल्लेख किया गया है, वह श्रुतनिश्रित मतिज्ञान से सम्बन्धित है, क्योंकि अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा श्रुतज्ञान का निकटतम सम्बन्ध श्रोत्रेन्द्रिय से है। आत्मोत्थान और कल्याण में मुख्यतया श्रुतज्ञान की प्रधानता है । अतः यहां श्रोत्रेन्द्रिय और शब्द के योग से व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह का उल्लेख किया गया है। अवग्रह आदि के छः उदाहरणा मूलम्-से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणिज्जा, तेणं 'सद्दो' त्ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ, 'के वेस सद्दाइ' ? तओ ईहं पविसइ, तो जाणइ 'अमुगे एस सद्दे ।' तो णं अवायं पविसइ, तपो से अवगयं हवइ, तो धारणं . पविसइ, तो णं धारेइ संखिज्ज वा कालं, असंखिज्जं वा कालं। से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं रूवं पासिज्जा, तेणं 'रूवं' ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ 'के वेस रूवं' त्ति ? तो ईहं पविसइ, तो जाणइ 'अमुगे एसरूवे त्ति तो अवायं पविसइ, तो से उवगयं भवइ, तो धारणं पविसइ, तो णं धारेइ, संखेज्जं वा कालं, असंखिज्जं वा कालं । से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं गंधं अग्घाइज्जा, तेणं 'गंध' ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ 'के वेस गंधे' त्ति? तो ईहं पविसइ, तो जाणइ 'अमुगे एस गंधे।' तमो अवायं पविसइ , तो से उवगयं हवइ, तो धारणं पविसइ, तो णं धारेइ संखेज्जं वा कालं, असंखेज्जं वा कालं ।। __ से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं रसं आसाइज्जा तेणं 'रसो' त्ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ 'के वेस रसे' त्ति? तो ईहं पविसइ, तो जाणइ 'अमुगे एस
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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