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मल्लक के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह
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गया। इसी तरह निरन्तर बिन्दु डालते रहने से वह पानी की बून्द हो जाएगी, जो उस शराव-प्याले को गीला करती है, तत्पश्चात् पानी ठहरता है, वह पानी का बिन्दु इस प्याले को भर देगा और भरने पर पानी बाहिर उच्छल कर गिरने लगेगा।
इसी प्रकार बार-बार पानी की बून्दें डालते रहने पर वह व्यञ्जन अनन्त पुद्गलों से पूरित होता है अर्थात् जब श्रुत के पुद्गल द्रव्य-श्रोत्र में परिणत हो जाते हैं, तब वह पुरुष हंकार करता है, किन्तु वह निश्चय से यह नहीं जानता कि यह किस व्यक्ति का शब्द है ? तत्पश्चात् वह ईहा में प्रवेश करता है और तब जानता है कि यह अमुक व्यक्ति का शब्द है। तत्पश्चात् अवाय में प्रवेश करता है, तब वह उपगत होता है अर्थात् शब्दादि आत्म ज्ञान में परिणत हो जात है। तत्पश्चात् धारणा में प्रवेश करता है और संख्यात व असंख्यात काल पर्यन्त धारण किये रहता है ।
टीका-अब सूत्रकार उक्त विषय और उदाहरण की पुष्टि के लिए आबाल-गोपाल प्रसिद्ध एक व्यावहारिक दृष्टान्त देकर विषय को स्पष्ट करते हैं । किसी पुरुष ने कुम्भकार के आवे से शुद्ध मिट्टी का पका हुआ एक कोरा प्याला लिया । अपने निवास-स्थान में आकर उसने अनुभव शक्ति को बढ़ाने के लिए उस प्याले में जल की एक बूंद डाली, वह तुरन्त बीच में ही समा गई, दूसरी बून्द और डाली, वह भी बीच में ही लुप्त हो गयी। इसी क्रम से जल की बूंदें डालते-डालते वह प्याला समयान्तर में शां-शां इस प्रकार अव्यक्त शब्द करने लगा। ज्यों-ज्यों वह पूर्णतया आद्रित होता जाता है, त्यों-त्यों प्रक्षिप्त की हुई बूंदें ठहरती जाती हैं । वह इसी क्रम से कुछ समय तक निरन्तर बूंदें डालता रहा, परिणाम स्वरुप वह प्याला पानी से लबालब भर गया। तत्पश्चात वह जितनी बँदें,डालता रहा, उतनी बंदें प्याले में से निकलती गई। इस उदाहरण से उसने व्यंजनावग्रह का रहस्य समझा। इससे यह भी ध्वनित होता है कि सुषुप्ति काल में चक्षुरिन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों का व्यंजनावग्रह ही होता है, किन्तु जाग्रतावस्था में अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह इस प्रकार दोनों तरह का होता है। श्रोत्रगत उपकरण-इन्द्रिय के साथ समय-समय में जब शब्दपुद्गल सुषुप्तिकाल में क्षयोपशम की मंदता में या अनभ्यस्तदशा में और अनुपयुक्त अवस्था में टकराते रहते हैं । तब असंख्यात समयों में उसे कुछ अव्यक्त ज्ञान होता है, बस वही व्यंजनावग्रह कहलाता है। जैसे कहा भी है
"तोएण मल्लगं पिव, वंजणमापूरियंति जं भणियं ।
' तं दम्वमिंदियं वा, तस्संबन्धो व न विरोहो ॥" जब श्रोत्रेन्द्रिय शब्द पुद्गलों से परिव्याप्त हो जाता है, तभी वह सुषुप्त व्यक्ति “हु" कार शब्द करता है । उस सोए हुए व्यक्ति को यह ज्ञात नहीं होता कि यह शब्द क्या है ? किसका है ? उस समय वह जाति-स्वरूप-द्रव्य-गुण-क्रिया-नाम इत्यादि विशेष कल्पना रहित अनिद्दिश्य सामान्यमात्र ही ग्रहण करता है। हुंकार करने से पहले व्यंजनावग्रह होता है । हुंकार भी बिना शब्द पुद्गल टक्कराए नहीं निकलता। और कभी हुंकार करने पर भी उसे यह भान नहीं रहता कि मैंने हुंकार किया। बार-बार संबोधित करने से जब निद्रा कुछ भंग हो जाती है और अंगड़ाई लेते हुए फिर भी शब्द पुद्गल टक्कराते ही रहते हैं, वहां तक अवग्रह ही रहता है । यह शब्द किसका है ? मुझे किसने संबोधित किया ? कौन