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नन्दीसूत्रम्
मूलम्-तस्स णं इमे एगट्ठिया नाणाघोसा, नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति, तं बहा–ोगेण्हणया, उवधारणया, सवणया, अवलंबणया, मेहा, से तं उग्गहे ॥ सूत्र ३१ ॥
छाया-तस्येमानि एकाथिकानि नानाघोषाणि, नानाव्यञ्जनानि पञ्च नामधेयानि भवन्ति. तद्यथा-अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता, मेधा, स एष अवग्रहः ॥ सूत्र ३१ ॥
पदार्थ-तस्स एं-उस अर्थावग्रह के 'रणं' वाक्य अलङ्कारार्थ में इमे-ये एगडिया-एक अर्थ वाले नाणाघोसा--उदात्त आदि नाना घोष वाले नाणावंजणा-'क' आदि नाना व्यञ्जन वाले पंच नामधिज्जा-पांच नामधेय भवंति–होते हैं, तं जहा—यथा प्रोगहण्हण्या-अवग्रहणता, उवधारणयाउपधरणता, सबणया---श्रवनता, अवलंबणया-अवलम्बनता, मेहा-मेधा, से तं-वह यह उग्गहअवग्रह है।
भावार्थ-उस अर्थ अवग्रह के ये एक अर्थ वाले, उदात्त आदि नाना घोष वाले, .क' आदि नाना व्यञ्जन वाले पांच नाम होते हैं, जैसे कि
१. अवग्रहणता, २. उपधारणता, ३. श्रवणता, ४. अवलम्बनता, ५. मेधा । वह यह अवग्रह है ।सूत्र ३१॥
टीका-इस सूत्र में अर्थावग्रह के पर्यायान्तर नाम दिए गए हैं। प्रथम समय में आए हुए शब्द, . रूपादि पुद्गलों का ग्रहण करना अवग्रह कहलाता है । अवग्रह तीन प्रकार का होता है, जैसे कि व्यंजनावग्रह, २. सामान्यार्थावग्रह, ३. विशेष सामान्यार्थावग्रह, किन्तु विशेष सामान्य अर्थावग्रह औपचारिक है, जिस का स्वरूप आगे वर्णन किया जाएगा।
१. अवग्रहणता--जिस के द्वारा शब्दादि पुद्गल ग्रहण किए जाएं, उसे अवग्रह कहते हैं । व्यंजनावग्रह आन्तहित्तिक होता है, उसके पहले समय में जो अव्यक्त झलक ग्रहण की जाती है, उसे अवग्रहणता कहते हैं।
२. उपधारणता-व्यंजनावग्रह के शेष · समयों में नवीन २ ऐन्द्रियक पुद्गलों का प्रति समय ग्रहण करना और पूर्व गृहीत का धारण करना, इसे उपधारणता कहते हैं। क्योंकि यह ज्ञान व्यापार को आगे २ के समयों के साथ जोड़ता रहता है, अव्यक्त से व्यक्ताभिमुख होजाने वाले अवग्रह को उपधारणता कहते हैं ।
____३. श्रवणता-जो अवग्रह श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा हो, उसे श्रवणता कहते हैं। एक समय में होने वाले सामान्यार्थावग्रह बोधरूप परिणाम को श्रवणता कहते हैं, इस का सीधा सम्बन्ध श्रोत्रेन्द्रिय से
४. अवलम्बनता-अर्थ का ग्रहण करना ही अवलंबनता है, क्योंकि जो अवग्रह सामान्य ज्ञान