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अर्थावग्रह के भेद
मूलम्-से किं तं अत्थुग्गहे? अत्थुग्गहे छविहे पण्णत्ते, तं जहा-१.सोइंदियअत्थुग्गहे, २. चक्खिदिय-अत्थुग्गहे, ३.घाणिदिय-अत्युग्गहे, ४.जिभिदिय-अत्थुग्गहे, ५. फासिंदिय-अत्थुग्गहे, ६. नोइंदिय-अत्थुग्गहे ।।सूत्र ३०॥
छाया-अथ कः सोऽर्थावग्रहः? अर्थावग्रहः षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १. श्रोत्रेन्द्रियाविग्रहः, २. चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहः, ३. घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहः, ४ जिह्वन्द्रियार्थावग्रहः, ५ स्पर्शन्द्रियार्थावग्रहः, ६ नोइन्द्रियार्थावग्रहः।।सूत्र ३०।। ।
भावार्थ-गुरु से शिष्य ने फिर पूछा-भगवन् ! वह अर्थावग्रह कितने प्रकार का है ? गुरुजी बोले-वह छ प्रकार से वर्णित है, यथा-१. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, २. चक्षुरिन्द्रय-अर्थावग्रह, ३. घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, ४. जिह्वन्द्रिय-अर्थावग्रह, ५. स्पशेन्द्रिय-अर्थावग्रह, ६. नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह ।।सूत्र ३०॥
टीका-इस सूत्र में अर्थावग्रह के ६ भेदों का उल्लेख किया गया है। जो सामान्य मात्र रूपादि ___ अर्थों का ग्रहण होता है, उसी को अर्थावग्रह कहते हैं, जैसे छोटी चिंगारी का सत् प्रयत्न से प्रकाशपुञ्ज
बनाया जा सकता है तथा छोटे चित्र से बड़ा चित्र बनाया जा सकता है। वैसे ही सामान्यावबोध होने पर विचार-विमर्श, चिन्तन-मनन, निदिध्यासन, अनुप्रेक्षा से उस सामान्यावबोध का विराट रूप बनाया जा सकता है। जब अवग्रह ही नहीं हुआ, तो ईहा का प्रवेश कैसे हो सकता है ? जो अर्थ की पहली धूमिल सी झलक अनुभव होती है, वही अर्थावग्रह है।
'नो इंदिय अस्थुग्गह-जो सूत्रकार ने यह पद दिया है, इसका अर्थ मन है । मन भी दो प्रकार का होता है-द्रव्य रूप और भाव रूप।
मनःपर्याप्ति नाम कर्मोदय से जीव में वह शक्ति पैदा होती है, जिसके द्वारा मनोवर्गणा के पुदगलों को ग्रहण करके द्रव्य मन की रचना की जाती है, जैसे योग्य आहार आदि से देह पुष्ट होता है, तभी वह कार्य करने में समर्थ होता है, वैसे ही जब मन से काम लिया जाता है, तब वह मनोवर्गणा के नए नए पुदगलों को ग्रहण करता है, बिना ग्रहण किए, वह कार्य करने में समर्थ नहीं होता। अतः उसे द्रव्य मन कहते हैं । इसी प्रकार चूर्णिकार जी भी लिखते हैं
'मणपजत्तिनामकम्मोदयश्रो तज्जोगे मणोदव्वे घेत्तुं मणत्तणेण परिणामिया दवा दवमणो भण्णइ' द्रव्यमन के होते हुए जीव का मनन रूप जो परिणाम है, उसी को भाव मन कहते हैं । इसी प्रकार भाव मन के विषय में चणिकारजी लिखते हैं-"जीवो पुण मण परिणामकिरियावन्नो भावमणो कि भणियं होडी मणदव्वालंबणो जीवस्स मणणवावारी भावमणो भएणइ।" यहां भाव मन का ही ग्रहण किया गया है। भावमन के ग्रहण करने से द्रव्यमन का भी ग्रहण हो जाता है। द्रव्य मन के बिना भाव मन का कार्यान्वित नहीं हो सकता। भाव मन के बिना द्रव्य मन हो सकता है, जैसे भवस्थ केवली के द्रव्यमन होता है। जब वह इन्द्रियों के व्यापार से निरपेक्ष काम करता है, तब नोइन्द्रिय अर्थावग्रहण होता है, अन्यथा वह इन्द्रियों का सहयोगी बना रहता है। जब वह मनन अभिमुख एक सामयिक रूपादि अर्थों का पहली बार सामान्यमात्र से अवबोध करता है, तब उसे नोइन्द्रिय अर्थावग्रह कहते हैं ।सूत्र ३०॥
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