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से विशेषाभिमुख तथा उत्तरवर्ती ईहा, अवाय और धारणा तक पहुंचने वाला हो, उसे अवलम्बनता कहते हैं।
५. मेधा-यह सामान्य और विशेष दोनों को ही ग्रहण करती है। पहले दो भेद व्यंजनावग्रह से सम्बन्धित हैं। तीसरा केवल श्रोत्रेन्द्रिय के अवग्रह से सम्बन्धित है । चौथा और पांचवां अर्थावग्रह नियमेन ईहा, अवाय और धारणा तक पहुंचने वाले हैं। कुछ ज्ञानधारा सिर्फ अवग्रह तक ही रह जाती है और कुछ आगे बढ़ने वाली होती है ।
एगछिया-इस पद का भाव है, यद्यपि अवग्रह के पांच नाम वर्णित किए हैं, तदपि ये पांच नाम शब्दनय की दृष्टि से एकार्थक समझने चाहिए । समभिरूढ और एवंभूत नय की दृष्टि से नहीं, क्योंकि उन पांचों के अर्थ भिन्न २ करते हैं।
नाणा घोसा-जो उक्त पांच पर्यायान्तर नाम अवग्रह के बताए हैं, उनका उच्चारण भिन्न २ एक है, जैसा नहीं।
. नाणा वजणा- इस पद से यह सिद्ध होता है कि ऊपर जो पांच नाम अवग्रह के बताए हैं, उन में स्वर और व्यंजन भिन्न २ हैं। इस से यह भी सूचित होता है कि स्वर और व्यंजन से शब्द शास्त्र बनता है और साथ ही शब्द कोष का भी संकेत मिलता है। शब्द कोष में एकाथिक अनेक शब्द मिलते हैं। इन पांचों में से कोई एक शब्द यदि किसी शास्त्र में श्रुतनिश्रित मति ज्ञान के प्रसंग में मिल जाए, तो उस का अर्थ-अवग्रह समझना चाहिए। जो २ शब्द अवग्रह को सूचित करते हैं, उन का नाम निर्देश संत्रकार ने स्वयं किया है, जिस से अध्येता को सुविधा रहे ।। सूत्र ३१ ।।
२. ईहा मूलम्-से किं तं ईहा ? ईहा छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-१. सोइंदिय-ईहा, २. चक्खिंदिय-ईहा, ३. घाणिदिय-ईहा, ४. जिभिदिय-ईहा, ५. फासिंदिय-ईहा, ६. नो इंदिय-ईहा। तीसे णं इमे एगट्ठिया नाणा घोसा, नाणा वंजणा पंच नामधिज्जा भवंति, तं जहा–१. आभोगणया, २. मग्गणया, ३. गवेसणया, ४. चिंता, ५, विमंसा, से तं ईहा ॥सूत्र ३२॥
.. छाया-अथ का सा ईहा ? ईहा षड्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-१. श्रोत्रेन्द्रियेहा, २. चक्षुरिन्द्रियेहा, ३. घ्राणेन्द्रियेहा, ४. जिह्वन्द्रियेहा, ५. स्पर्शेन्द्रियेहा, ६. नोइन्द्रियेहा, तस्या इमानि एकाथिकानि नानाघोषाणि, नानाव्यञ्जनानि पंच नामधेयानि भवन्ति, तद्यथा१. आभोगनता, २. मार्गणता, ३. गवेषणता, ४. चिन्ता, ५. विमर्शः (मीमांसा)-सा एषा ईहा ||सूत्र ३२||