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नन्दीसूत्रम्
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान मूलम्-से किं तं सुयनिस्सियं ? सुयनिस्सियं चउब्विहं पण्णत्तं, तं जहा-- १. उग्गहे, २. ईहा, ३. अवाओ, ४. धारणा ॥ सूत्र २७ ॥
छाया-अय किं तत् श्रुतनिश्रितम् ? श्रुतनिश्रितं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा१. अवग्रहः, २. ईहा, ३. अवायः, ४. धारणा ।। सूत्र २७ ।।
पदार्थ से किं तं सुयनिस्सियं?—वह श्रुतनिश्रित कितने प्रकार का है ? सुयनिस्सियं-श्रुतनिश्रित चउब्विहं-चार प्रकार से परणतं-प्रतिपादन किया है तं जहा—वह इस प्रकार है उग्गहे. अवग्रह ईहा-ईहा अवारो-अवाय और धारणा-धारणा।
भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया-गुरुदेव ! वह श्रुतनिश्रित कितने प्रकार का है ? गुरुजी ने उत्तर दिया-वह चार प्रकार से है, जैसे-१. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय और ४. धारणा। सूत्र २७ ॥
टीका-प्रस्तुत सूत्र में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का विषय वर्णन किया गया है। कभी तो मतिज्ञान स्वतंत्र कार्य करता है और कभी श्रुतज्ञान के सहयोग से । जब मतिज्ञान श्रुतज्ञान के निश्रित उत्पन्न होता है, तब उसके क्रमशः चार भेद हो जाते हैं, जैसे कि-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । इनकी संक्षेप में निम्न प्रकार से व्याख्या की जाती है, जैसे
अवग्रह-जो अनिर्देश्य सामान्यमात्र रूप आदि अर्थों का ग्रहण किया जाता है अर्थात् जो नाम- .. जाति, विशेष्य-विशेषण आदि कल्पना से रहित सामान्यमात्र का ज्ञान होता है, उसे अवग्रह कहा जाता है, ऐसा चूर्णिकार का अभिमत है।' इसी विषय में वादिदेवसूरि लिखते हैं, कि--विषय-पदार्थ और विषयी इन्द्रिय, नो-इन्द्रिय आदि का यथोचित देश में सम्बन्ध होने पर सत्तामात्र को जानने वाला दर्शन उत्पन्न होता है । इसके अनन्तर सबसे पहिले मनुष्यत्व, जीवत्व, द्रव्यत्व आदि अवान्तर सामान्य से युक्त वस्तु को जाननेवाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है।
जैन आगमों में दो उपयोग वर्णन किए गए हैं-साकार उपयोग और अनाकार उपयोग । दूसरे शब्दों में इन्हीं को ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग भी कहा जाता है । यहां ज्ञानोपयोग का वर्णन करने के लिए उससे पूर्वभावी दर्शनोपयोग का भी उल्लेख किया गया है। ज्ञान की यह धारा उत्तरोत्तर विशेष की ओर झुकती जाती है।
ईहा-अवग्रह से उत्तर और अवाय से पूर्व सद्भूत अर्थ की पर्यालोचनरूप चेष्टा को ईहा कहते हैं
१. सामण्णस्स रूवादि-विसेसणरहियस्स अनि सस्स अवम्गहणं अवग्गहो।। २. विषय-विषयि सन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातमाद्यम् , अवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तु- ग्रहणमवग्रहः ।
-प्रमाणनयतृत्त्वालोक, परि० २, सू०७ ।