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पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण 'जिस क्रोध से सर्प की योनि मिली, उस पर विजय प्राप्त करने के लिए तथा इस दृष्टि से अन्य किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचे।' इस लिए भगवान के समक्ष ही सर्प ने अनशन कर लिया तथा अपना मुंह बिल में डाल कर शरीर बाहिर रहने दिया। थोड़ी देर के पीछे ग्वाले वहाँ आये और भगवान कोकु शल पाया तो उन के आश्चर्य की सीमा न रही। सर्प को इस प्रकार देख, वे उस पर लकड़ी तथा पत्थर आदि से प्रहार करने लगे । चण्डकौशिक इस कष्ट को समभाव ते सहन करता रहा । यह देख कर ग्वालोंने लोगों से जा कर सारी बात कही। बहुत से स्त्री-पुरुष उसे देखने के लिए आने लगे। कई ग्वालिने दूध-घी से उसकी पूजा-प्रतिष्ठा करने लगीं। घृत आदि की सुगन्धि से सर्प पर बहुत-सी चींटियाँ चढ़ गयीं और काट-काट कर छलनी बना दिया। इन सभी कष्टों को सर्प अपने पूर्व कृत कर्मों का फल मान कर समभावपूर्वक सहता रहा। विचारता, कि ये कष्ट मेरे पापों की तुलना में कुछ भी नहीं। चींटियां मेरे भारी शरीर के नीचे दबकर मर न जाएं, इस लिए शरीर को तनिक भी नहीं हिलाया और सम भाव से वेदना को सहन कर पन्द्रह दिन का अनशन पूरा कर सहस्रार नामक आठवें देव लोक में उत्पन्न हुआ। भगवान महावीर के अलौकिक रक्त का आस्वादन कर चण्डकौशिक ने बोध को प्राप्त कर अपना जन्म सफल किया। यह उसकी पारिणामिकी बुद्धि थी।
२०. गेंडा-एक गृहस्थ था। युवावस्था में उसने श्रावक के व्रतों को धारण कर लिया। परन्तु यौवन अवस्था के कारण व्रतों को सम्यक्तया पालता नहीं था। इसी बीच वह रोग ग्रस्त हो गया और व्रतों की आलोचता नहीं कर पाया। धर्म से वह पतित हो, मरकर गैण्डे के रूप में जंगल में पैदा हो गया। वह क्रूर परिणामों से जंगल में अनेक जीवों की घात करने लगा और आते जाते मनुष्यों को भी मार डालता था।
__एक बार उसी जंगल में से मुनि जन विहार करते हुए जा रहे थे। साधुओं को देखकर उसे क्रोध आया और उन पर आक्रमण के लिए आगे बढ़ा और उन पर आक्रमण करने का यत्न किया। परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल म हो सका। मुनियों के तपस्तेज और अहिंसा धर्म के आगे उस का हिंसक बल निस्तेज और स्तम्भित हो गया। वह उन्हें देख कर विचार में पड़ गया कि यह क्या कारण है ? यह सोचने पर उसका क्रोधावेश शान्त हो गया और विचार करते करते ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होते ही जाति स्मरण ज्ञान हो गया। अपने पूर्व भव को जान कर अनशन कर दिया और आयुष्य कर्म पूरा होने पर देवलोक में उत्पन्न हो गया। यह गण्डे की पारिणामिकी बुद्धि थी। .
२१. स्तूप-भेदन-राजा श्रेणिक के छोटे पुत्र का नाम विहल्लकुमार था। महाराजा श्रेणिक ने अपने जीवन काल में ही विहल्लकुमार को सेचानक हाथी और अठारह-सार वङ्कचूड़ हार दे दिया था। विहल्ल कुमार अपनी रानियों के साथ हाथी पर सवार होकर सदैव गङ्गा तट पर जाता और अनेक प्रकार की क्रीड़ा करेता। हाथी रानियों को अपनी संड से उठा कर पानी में विविध प्रकार से उन का मनोरञ्जन करता। विहल्ल कुमार और रानियों की इस प्रकार की मनोरञ्जक क्रीड़ाएं देख कर जनता के मुहपर यह बात थी कि वास्तव में राज्य लक्ष्मी का उपभोग तो विहल्लकुमार ही करता है । जब यह समाचार राजा कुणिक की रानी पद्मावती ने सुना तो उस के मन में ईर्ष्या पैदा हुई और विचारने लगीयदि सेचानक गन्धहस्ति मेरे पास नहीं है तो मैं रानी किस नाम की ? अतः उसने हाथी लेने के लिए कुणिक से प्रार्थना की। कुणिक ने पहले तो उसकी बात को टाल दिया। परन्तु उसके बार-बार आग्रह करने पर विहल्लकुमार से हार और हाथी मांगे। विहल्लकुमार ने उत्तर में कहा-यदि आप हार