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नन्दीसूत्रम्
१८. मणि-जंगल में एक सर्प रहता था। उसके मस्तक पर मणि थी। वह रात्रि को वृक्षों पर चढ़कर पक्षियों के बच्चों को खाता था। एक दिन वह अपने भारी शरीर को न सम्भाल सकने से नीचे गिर पड़ा और सिर की मणि वृक्ष पर ही रह गयी । वृक्ष के नीचे एक कुआं था । मणि की प्रभा से उसका पानी लाल दिखायी देने लगा। प्रातः काल कएं के पास खेलते हुए बालक ने यह दृश्य देखा। वह दौड़ा हुआ घर पर आया और अपने वृद्ध पिता से सारी बात कह सुनाई । बालक की बात सुन कर वह वृद्ध वृक्ष के पास आया और कुंए की अच्छी प्रकार से देख-भाल कर पता चला, तो वृक्ष पर मणि को देखा और उसे लेकर घर चला गया। यह वृद्ध की पारिणामिकी बुद्धि थी।
१६. सर्प-दीक्षा लेकर भगवान महावीर ने प्रथम वर्षावास अस्थिक ग्राम मै विताया। चतुर्मासानन्तर भगवान विहार कर श्वेताम्बिका नगरी की ओर पधारने लगे। कुछ दूर जाने पर ग्वालों ने । भगवान से प्रार्थना की-"भगवन् ! श्वेताम्बिका जाने के लिए यद्यपि यह मार्ग छोटा है, किन्तु मार्ग में एक दृष्टिविष सर्प रहता है, हो सकता है कि आप को मार्ग में उपसर्ग में आये ।" बाल. ग्वालों की बात सुन भगवान ने विचारा-'वह सर्प तो बोध पाने योग्य है', यह सोचकर उसी मार्ग से चले गये और सर्प के बिल के पास पहुंच गये तथा बिल के समीप ही कायोत्सर्ग में स्थिर हो गये । थोड़ी ही देर में सर्प बाहिर निकला । क्या देखता है कि यहां पर एक व्यक्ति मौन धारण किए खड़ा है। विचारने लगा-"यह कौन है, जो मेरे द्वार पर इस तरह निर्भीक होकर खड़ा है ?" यह सोच कर उसने अपनी विषाक्त दृष्टि भगवान पर डाली, किन्तु भगवान का इससे कुछ भी न बिगड़ा। अपने प्रयास में असफल होकर सा का क्रोध उग्र रूप धारण कर गया। और सूर्य की ओर देख कर पुनः विषली दृष्टि भगवान पर फैकी, किन्तु वह भी असफल रही । तब वह भगवान् के पास रोष से भरा हुआ आया और उनके चरण के अंगूठे को डस लिया। इस पर भी भगवान अपने ध्यान में तल्लीन रहे। अंगठे के रक्त का आस्वाद सर्प को विलक्षण ही प्रतीत हुआ। वह सोचने लगा-"यह कोई सामान्य नहीं, अलौकिक पुरुष है।" यह विचारते ही सर्प का क्रोध शान्त हो गया। वह शान्त और कारुणिक दृष्टि से भगवान के सौम्य मुख मण्डल को देखने लगा। उपदेश का यह समय देख भगवान ने फर्माया-"चण्ड कौशिक ! बोध को प्राप्त हो, पूर्व भव को स्मरण करो।" "हे चण्ड कौशिक ! तुम ने पूर्व भव में दीक्षा ली थी। तुम एक साधु थे। पारणे के दिन गोचरी से लौटते समय तुम्हारे पैर से दब कर एक मेंडक मर गया, उस समय तुम्हारे शिष्य ने आलोचना करने के लिए कहा, किन्तु तुम ने ध्यान न दिया। गुरु महाराज तपस्वी हैं, सायं काल आलोचना कर लेंगे।' ऐसा विचार कर शिष्य मौन रहा। सायं काल प्रतिक्रमण के समय तुमने उस पाप की आलोचना नहीं की। 'संभव है गुरु महाराज आलोचना करना भूल गये हों।' इस सरल बुद्धि से तुम्हें शिष्य ने याद कराया। परन्तु शिष्य के वचन सुनते ही तुम्हें क्रोध आगया। क्रोध से उत्तप्त होकर तुम शिष्य को मारने के लिये उसकी ओर दौड़े, किन्तु बीच में स्थित स्तम्भ से जोर से टकराये, जिससे तुम्हारी मृत्यु हो गई।" "हे चण्ड कौशिक ! तुम वही हो। क्रोध में मृत्यु होने से तुम्हें यह योनि प्राप्त हुई। अब पुनः क्रोध के वशीभूत हो कर तुम अपना जन्म क्यों बिगाडते हो।' समझो ! समझो !! प्रतिबोध को प्राप्त करो।"
भगवान् के उपदेश से उसी समय ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से चण्ड कौशिक को जाति स्मरण ज्ञान पैदा हो गया। अपने पूर्व भव को देखा और भगवान को पहचान कर विनय पूर्वक वन्दना की तथा अपने अपराध के लिये पश्चात्ताप करने लगा।
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