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नन्दीसूत्रम्
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अथात्
कल्याण होगा।" यह विचार बालक अपने स्थान से किञ्चिन्मात्र भी न हिला । तत्पश्चात् पिता से बालक को बुलाने के लिए कहा । पिता ने कहा-- .
___“जइसि कयज्मवसाओ, धम्मज्झयमृसिधे इमं वइर! .
गिण्ह लहुँ रयहरणं, कम्म रय पमज्जणं धीर !!". अर्थात हे वज्र ! यदि तुम ने निश्चय कर लिया है तो धर्माचरण का चिन्हभूत तथा कर्मरज को प्रमार्जन करने वाले इस रजोहरण को ग्रहण करो।
यह सुनते ही बालक मुनियों की ओर गया और रजोहरण उठा लिया। इस पर बालक साधुओं को सौंप दिया और राजा तथा संघ की आज्ञा से आचार्य ने उसी समय बालक को दीक्षा दे दी। यह देखकर, सुनन्दा ने विचारा-"मेरा भाई, पति और पुत्र सब संसारी बन्धनों को तोड़ कर दीक्षित हो गये हैं, अब मैं गृहस्थ में रह कर क्या करूंगी ?" तत्पश्चात् वह दीक्षित हो गई।
आचार्य सिंहगिरि बालक मुनि को कुछ अन्य साधुओं की सेवा में छोड़ कर अन्यत्र विहार कर गये । कालान्तर में बालक मुनि भी आचार्य की सेवा में चला गया और उनके साथ विहार करने लगा। आचार्य द्वारा मुनियों को वाचना देते समय वह बालक मुनि भी दत्तचित्त हो, सुनता और इसी तरह उसने ११ अङ्गों का ज्ञान स्थिर कर लिया और क्रमशः सुनते-सुनते ही पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
एक बार आचार्य शौच निवृत्ति के लिए गये हुए थे तथा अन्य साधु इधर उधर गोचरी आदि के लिए । उपाधय में वज्रमुनि अकेले ही रह गये थे। उन्होंने गोचरी आदि के वास्ते गये हुए साधुओं के वस्त्रपात्र आदि को क्रमश: पंक्ति में स्थापित किया । और स्वयं मध्य में बैठ, उपकरण में शिष्यों की कल्पना करके शास्त्र वाचना देने लगे । आचार्य जब शौच आदि से निवृत्त होकर वापिस उपाश्रय में आ रहे थे, तब . उन्होंने दूर से ही सूत्र वाचने की ध्वनि सुनी। आचार्य ने समीप आकर विचारा-"क्या शिष्य इतनी जल्दी गोचरी लेकर आ गये हैं ?" निकट आने पर आचार्य ने वज्रमुनि की ध्वनि को पहिचाना और अलेक्षित हो कर वज्रमुनि का वाचना देने का ढंग देखते रहे । वाचना देने की शैली देख आचार्य आश्चर्य में पड़ गये । तत्पश्चात् साक्षात् वज्रमुनि को सावधान करने के लिए उच्च स्वर में नैषेधिकी २ उच्चारण किया। मुनि ने आचार्य का आगमन जान उपकरणों को यथास्थान रख कर विनय पूर्वक गुरु के चरणों पर लगी रज को पोंछा। इतने में अन्य मुनि भी आ गए और आहार आदि ग्रहण करके सब अपने-अपने आवश्यक कार्यों में निरत हो गए।
आचार्य ने विचारा कि यह वज्रमुनि श्रुतधर है । अतः इसे छोटा समझकर अन्य मुनि इस की अवज्ञा न कर दें, अत एव कुछ दिनों के लिए वहाँ से विहार कर दिया। आचार्य ने वाचना देने का कार्य वज्रमुनि को सौंपा और अन्य साधु विनय पूर्वक वाचना लेने लगे। वज्रमुनि आगमों के सूक्ष्म रहस्य को इस ढंग से समझाने लगे कि मन्दबुद्धि भी तत्त्वार्थ को सुगमता से हृदयंगम कर लेता। पहिले पढ़े हुए शास्त्रों में मुनियों को कई प्रकार की शंकाएं थीं, उनको भी मुनि जी ने विस्तार से व्याख्या कर समझाया । साधुओं के मन में वज्रमुनि के प्रति आगाध भक्ति हो गई। थोड़े दिन विचरने के अनन्तर आचार्य पुनः उसी स्थान पर लौट आये । आचार्य ने वज्रमुनि की वाचना के विषय में साधुओं से पूछा। मुनि बोले"आचार्य देव ! हमारी शास्त्र वाचना भली-भांति चल रही है, कृपा कर के वाचना का कार्य अब सदा के लिए वज्रमुनि को ही सौंप दीजिए।" आचार्य बोले-"आप लोगों का कथन ठीक है, वज्रमुनि के प्रति
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