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पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण
ने दीक्षा न ली होती तो अच्छा होता ।" बालक बहुत मेधावी था, स्त्री के वचनों को सुनकर विचारने लगा कि मेरे पिता ने तो दीक्षा लेती है, मुझे अब क्या करना चाहिए ?" इस विषय पर चिन्तन-मनन करते हुए बालक को जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। वह विचारने लगा कि मुझे कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे मैं सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाऊं तथा माता को भी वैराग्य हो और वह भी इन बन्धनों से छूट जाये इस प्रकार विचार कर बच्चे ने रात-दिन रोना आरम्भ कर दिया। माता ने उस का रोना बन्द करने के लिये अनेकों प्रयत्न किए, परन्तु निष्फल | माता इससे दुःखी हो गई ।
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इधर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आचार्य सिंहगिरि पुनः तुम्बवन में पधारे भिक्षा का समय होने पर गुरु की आज्ञा लेकर धनगिरि और आसमित नगर में जाने लगे। उस समय के शुभ शकुनों को देख, गुरु ने शिष्यों से कहा- "आज तुम्हें कोई महान् लाभ होगा, इसलिये सचित्त-अचित्त जो भी भिक्षा में मिले तुम ग्रहण कर लेना ।" गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके मुनि युगल नगर में चले गये ।
सुनन्दा उस समय अपनी सखियों के साथ बैठी बालक को शान्त करने का प्रयत्न कर रही थी। उसी समय दोनों मुनि उधर आ निकले। मुनियों को देखकर सुनन्दा ने मुनि धनगिरि से कहा- "मुनिवर ! आज तक इसकी रक्षा में करती रहो, अब इसे आप सम्भालिये और रक्षा करें।" यह सुनकर मुनि धनगिरि पात्र निकालकर खड़े रहे और सुनन्दा ने बालक को पात्र में डाल दिया । श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति में बच्चे को मुनि ने ग्रहण कर लिया और उसी समय बालक ने रोना भी बन्द कर दिया। बालक को लेकर दोनों गुरु के पास वापिस चल दिए । भारी भोली उठाए हुए शिष्य को दूर से ही देख कर गुरु बोल उठे "यह वज्र सदृश भारी पदार्थ क्या लाये हो ?" धनगिरि ने प्राप्त भिक्षा गुरु के चरणों में रखदी । अत्यन्त तेजस्वी और प्रतिभाशाली बालक को देखकर गुरु बहुत हर्षित हुए और बोले- "यह बालक शासन का आधारभूत होगा और उसका नाम वज्र रख दिया।
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तत्पश्चात् लालन-पालन के लिए बच्चा संघ को सौंप आचार्य वहां से विहार कर गये । बच्चा दिनों-दिन बढ़ने लगा । कुछ दिनों के पीछे माता सुनन्दा अपना पुत्र वापिस लेने के लिए गई । परन्तु, संघ ने "यह दूसरों की धरोहर है ।" यह कहकर देने से इनकार कर दिया ।
किसी समय आचार्य सिंहगिरि अपने शिष्यों समेत फिर वहाँ पधारे सुनन्दा आचार्य का आगमन सुनकर उनके पास बालक को मांगने गई। आचार्य के न देने पर वह राजा के पास पहुंची और अपना पुत्र वापिस लौटाने के लिए प्रार्थना की। राजा ने कहा - " एक तरफ बालक की माता बैठ जाए और दूसरी तरफ उसका पिता, बुलाने पर बालक जिधर चला जाए, वह उसी का होगा । "
राजा का यह निर्णय देने पर अगले दिन राजसभा में माता सुनन्दा अपने पास खाने-पीने के पदार्थ और बहुत-स - से खिलौने लेकर नगर निवासियों के साथ बैठ गई तथा एक और संघ के साथ आचार्य तथा धनगिरि आदि मुनि विराजमान हो गये । राजा ने उपस्थित जन समूह के सामने कहा – “पहिले बालक को उसका पिता बुलाए।" यह सुन कर नगर निवासियों ने कहा- "देव! बच्चे की माता दया की पात्र है, पहिले उसे बुलाने की आज्ञा होनी चाहिए।" उपस्थित जनता की बात मान कर राजा ने पहिले माता को बुलाने की आज्ञा दी । आज्ञा प्राप्त कर माता ने बच्चे को बुलाया तथा उसे बहुत प्रलोभन, खिलौने और खाने पीने की वस्तुएं देकर अपने पास बुलाने का यत्न किया। बालक ने सोचा- "यदि मैं इस समय दृढ़ रहा तो माता का मोह दूर हो जायेगा और वह भी व्रत धारण कर लेगी, जिससे दोनों का