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नन्दीसूत्रम्
"मुद्रेयं खलु पारवश्यजननी, सौख्यच्छिदा देहिनां । नित्यं कर्कशकर्मबन्धनकरी, धर्मान्तरायावहा ॥ . राजार्थंकपरैव सम्प्रति पुनः, स्वार्थप्रजार्थापहृत् ।
तद्बमः किमतः परं मतिमतां, लोकद्वयापायकृत् ॥" अर्थात्-यह धन स्वतन्त्रता का अपहरण करके परतन्त्र बनाने वाला है। मनुष्यों के सुख को नष्ट करने वाला है। सदैव कठोर कर्मबन्धन करने वाला है। धर्म में विघ्न डालने वाला है, और राजा लोग तो केवल धनार्थी होते हैं, वे अपने स्वार्थ के लिए प्रजा का धन हरण कर लेते हैं। हम मतिमानों को अधिक क्या कहें ! यह माया दोनों लोक में दुःख देने वाली है।
इस प्रकार विचार करते २ स्थूलभद्र के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। वह आर्य सम्भूतविजय जी के पास आया और दीक्षा ग्रहण कर ली । स्थूलभद्र के दीक्षा ग्रहण करने पर श्रियक को मन्त्री बनाया और वह बड़ी कुशलता से राज्य को चलाने लगा।
मुनि स्थूलभद्र संयम धारण करने के पश्चात् ज्ञान-ध्यान में रत रहने लगे। ग्रामानुग्राम विचरते हुए स्थूलभद्र मुनि अपने गुरु के साथ पाटलिपुत्र पहुँचे । चातुर्मास का समय समीप देख गुरु ने वहीं वर्षावास विताने का निर्णय किया। उनके चार शिष्यों ने आकर अलग-अलग चतुर्मास करने की आज्ञा मांगी। एक ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने सर्प के बिल पर, तीसरे ने कुंए के किनारे पर और स्थूलभद्र मुनि ने कोशा वेश्या के घर पर । गुरु ने उन्हें आज्ञा दे दी और वे अपने-अपने अभीष्ट स्थान पर चले गये ।
देर से बिछड़े हुए अपने प्रेमी को देखकर कोशा बहुत प्रसन्न हुई। मुनि स्थूलभद्र ने कोशी से वहां ठहरने की आज्ञा मांगी। वेश्या ने अपनी चित्रशाला में स्थूलभद्र जी को ठहरने की आज्ञा देदी। वेश्या पूर्व की भान्ति श्रृंगार करके अपने हाव-भाव प्रदर्शित करने लगी। परन्तु वह अब पहिले वाला स्थूलभद्र न था, जो उसके श्रृंगारमय कामुक प्रदर्शनों से विचलित हो जाये । वह तो कामभोगों को किम्पाक फल सदृश समझकर छोड़ चुका था। वह वैराग्य रंग से रञ्चित था। उसकी धमनियों में वैराग्य प्रवाहित हो चुका था। अतः वह शरीर से तो क्या मन से भी विचलित न हुआ। मुनि स्थूलभद्र के निर्विकार मुखमण्डल को देखकर वेश्या का विलासी हृदय शांत हो गया। तब अवसर देखकर मुनिजी ने कोशा को हृदयस्पर्शी उपदेश दिया, जिसे सुनकर कोशा को प्रतिबोध हो गया। उसने भोगों को दुःखों का कारण जान श्रावक वृत्ति धारण कर ली।
वर्षावास की समाप्ति पर सिंहगुफा, सर्पद्वार और कुएं के किनारे चतुर्मास करनेवाले मुनियों ने आकर गुरु के चरणों में नमस्कार किया। गुरुजी ने उनकी प्रशंसा करते हुए 'कृतदुष्करः' अर्थात् हे मुनियो ! आपने 'दुष्कर कार्य किया। परन्तु, जब मुनि स्थूलभद्र ने गुरु चरणों में आकर नमस्कार किया तब गुरु ने 'कृतदुष्कर-दुष्करः' का प्रयोग किया, अर्थात् हे मुने ! तुमने 'अतिदुष्कर कार्य किया है ।' स्थूलभद्र के प्रति प्रयुक्त शब्दों पर तीनों मुनियों को ईर्षाभाव उत्पन्न हुआ।
जब अगला चतुर्मास आया तो सिंहगुफा में वर्षावास करनेवाले मुनि ने कोशा वेश्या के घर पर चतुर्मास की आज्ञा मांगी, किन्तु गुरु के आज्ञा न देने पर भी वह चतुर्मास के लिए कोशा के घर पर चला गया । वेश्या के रूप-लावण्य को देखकर मुनि का.मन विचलित हो गया, वह वेश्या से प्रार्थना करने लगा।