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________________ पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण वेश्या ने मुनि से कहा- "मुझे एक लाख मोहरें दो।" मुनि ने उत्तर दिया--"मैं तो भिक्षु हूं, मेरे पास धन कहां? वेश्या ने फिर कहा-"नेपाल का राजा प्रत्येक साधु को एक रत्नकंबल देता है, उसका मूल्य एक लाख रुपया है। तुम वहां जाओ और मुझे एक कम्बल लाकर दो।" कामराग के वशीभूत वह मुनि नेपाल गया और कम्बल लेकर वापिस लौटा । परन्तु मार्ग में लौटते समय चोरों ने उससे वह छीन लिया। वह दूसरी बार फिर नेपाल गया और राजा से अपना वृत्तान्त कह कर पुनः कम्बल की याचना की। राजा ने उसकी प्रार्थना पुनः स्वीकार की और वह अबके रत्नकम्बल को बांस में छिपाकर वापिस लौटा। मार्ग में फिर चार मिले; वे उसे लूटने लगे। मुनि ने कहा- "मैं तो भिक्षु हूं, मेरे पास कुछ नहीं है।" उसका उत्तर सुन चोर चले गये । मार्ग में भूख-प्यास और चलने के कष्ट तथा चोरों के दुर्व्यवहार को सहन कर वेश्या को रत्नकम्बल लाकर समर्पण किया। कोशा ने रत्नकम्बल लेकर अशुचि स्थान पर फेंक दिया। यह देखकर खिन्न हुए मुनि ने कोशा से कहा--"मैंने अनेक कष्टों को सहकर यह कम्बल तुम्हें लाकर दिया है और तुमने इसे यों ही फेंक दिया।" वेश्या बोली-हे मुने ! यह सब-कुछ, मैंने तुम्हें समझाने के लिए किया है। जिस प्रकार अशुचि में पड़ने से यह रत्नकम्बल दूषित हो गया है, उसी प्रकार काम-भोगों में पड़ने से तुम्हारी आत्मा मलिन हो जायेगी। मुने ! विचार करो, जिन विषय-भोगों को विषके समान समझ कर तुमने ठुकरा दिया था, अब पुनः उस वमन को स्वीकार करना चाहते हो, यह तुम्हारे पतन का कारण है, इसलिए संभलो और संयम का आराधन करने में तत्पर हो जाओ।" मुनि को वेश्या का उपदेश अंकुश सदृश लगा और अपने किए हुए पर पश्चात्ताप किया और कहने लगा. "स्थूलभद्रः स्थूलभद्रः स एकोऽखिलसाधुषु । . युक्तं दुष्करदुष्करकारको गुरुणा जगे॥" अर्थात्--"सब साधुओं में एक स्थूलभद्र मुनि ही दुष्कर-दुष्कर क्रिया करने वाला है, जो बारह वर्ष वेश्या की चित्रशाला में रहा और संयम धारण कर पुनः उसके मकान पर चतुर्मास करने गया तथा वेश्या के कामुक हाव-भाव दिखाने पर एवं कामभोग सेवन करने की प्रार्थना करने पर भी मेरु के समान अविचल रहा । इसी कारण गुरु ने जो 'दुष्करदुष्कर' शब्द स्थूलभद्र के लिए कहे थे, वे यथार्थ थे ।" इस प्रकार 'कहने पर वह गूरु के पास आया और आलोचना करके शुद्धि की। मुनि स्थूलभद्र के इसी दुष्कर-दुष्कर कार्य पर ही तो किसी ने कहा है___ "गिरौ गुहायां विजने वनान्ते, वासं श्रयन्तो वशिनः सहस्रशः ।। हयेऽतिरम्ये युवतिजनान्तिके, वशी स एकः शकटालनन्दनः॥" इसी विषय में और भी कहा है "वेश्या रागवती सदा तदनुगा, षड्भी रसैर्भोजनं । शुभ्र धाममनोहरं वपुरहो। नव्यो वयः संगमः ॥ कालोऽयं जलदानिलस्तदपि यः, . कामं जिगायादरात् । तं वन्दे युवतिप्रबोधकुशलं, श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् ॥" अर्थात्-पर्वत पर, पर्वत की गुफा में, श्मशान में, और वन में रहकर मन वश करनेवाले तो हजारों मुनि हैं, किन्तु सुन्दर स्त्रियों के समीप रमणीय महल के अन्दर रहकर यदि आत्मा को वश में रखनेवाला है, तो केवल एक स्थूलभद्र मुनि ही है .
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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