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नन्दीसूत्रम्
शकटार ने राजा से कहा-"महाराज ! वह तो लोक में प्रचलित पुराने ही श्लोकों को सुना देता है। राजा ने पूछा-"यह तुम कैसे कहते हो ?" मन्त्री बोला-"मैं सत्य कहता हूँ, जो श्लोक वररुचि सुनाता है, वे तो मेरी कन्यायें भी जानती हैं। यदि आप को विश्वास न हो तो कल ही वररुचि द्वारा सुनाये गये श्लोकों को मेरी कन्यायें आप को सुना देंगी । "राजा ने यह बात स्वीकार कर ली। अगले दिन अपनी कन्याओं को साथ लेकर मन्त्री राजसभा में आया और अपनी कन्याओं को पर्दे के पीछे बैठा दिया। तत्पश्चात् वररुचि राजसभा में आया और एक सौ आठ श्लोक पढ़ कर सुनाये । उसके बाद शकटार की बड़ी कन्या सामने आई और वररुचि के सुनाये हुए श्लोक ज्यों क त्यों सुना दिये । यह देख राजा वररुचि पर क्रुद्ध हुआ और उसे राजसभा से निकलवा दिया।
वररुचि इससे बहुत खिन्न हुआ और शकटार को अपमानित करने का निर्णय किया। वह लकड़ी का एक लम्बा तखता ले कर गंगा के किनारे गया। उसने लकड़ी का एक किनारा जल में डाल दिया और दूसरा बाहिर रखा। रात को उसने थैली में एक सौ आठ मोहरें डाली और गंगा के किनारे जाकर जल निमग्न भाग पर थैली को रख दिया। प्रातःकाल होने पर वह सूखे भाग पर बैठ गया और गंगा की स्तुति करने लगा। जब स्तुति पूर्ण हो चुकी तो तखते को दबाया, जिससे थैली बाहिर आ गई। थैली दिखाते हुए उसने लोगों से कहा- 'यदि राजा मुझे इनाम नहीं देता तो क्या हुआ, गंगा तो मुझे प्रसन्न होकर देती है।" ऐसा कहता हुआ वह वहां से चला गया । लोग वररुचि के इस कार्य को देख कर आश्चर्य करने लगे। जब शकटार को यह ज्ञात हुआ तो उसने खोज करके रहस्य को जान लिया। . .
जनता वररुचि के इस कार्य को देख कर उसकी प्रशंसा करने लगी और धीरे-धीरे यह बात राजा तक जा पहुंची। राजा ने शकटार से पूछा, तो मन्त्री बोला-"देव ! यह सब वररुचि का ढोंग है, इससे वह लोगों को भ्रम में डालता है। सुनी सुनाई बात पर एक दम विश्वास नहीं करना चाहिये।" राजा ने । कहा ठीक है, कल हमें स्वयं गंगा के किनारे जा कर देखना चाहिये। मन्त्री ने इस बात को स्वीकार कर लिया।
घर आकर उसने अपने विश्वस्त सेवक को बुलाया और कहा जाओ और आज.रात गंगा के किनारे छिप कर बैठे रहो । रात को वररुचि मोहरों की थैली रख कर जब चला जाये तो तुम वह उठा कर मेरे पास ले आना । सेवक ने वैसा ही किया । वह गंगा के किनारे छिप कर बैठ गया। आधी रात को वररुचि आया और पानी में मोहरों की थैली रख गया। नौकर वररुचि के जाने के पीछे वहां से थैली उठा लाया और मन्त्री को सौंप दी। प्रातःकाल वररुचि आया और नित्य की भांति तखते पर बैठ कर स्तुति करने लगा। इतने में मंत्री और राजा दोनों वहाँ पर आ गये । स्तुति समाप्त होने पर जब तखते को दबाया तो थैली बाहिर नहीं आई। इतने में शकटार ने कहा-"पण्डितराज ! पानी में क्या देखते हो, आप की थैली तो मेरे पास है।" यह कह थैली सबको दिखाई और उसका रहस्य भी जनता को समझाया। मायावी, कपटी आदि शब्द कह कर लोग पण्डितजी की निन्दा करने लगे । वररुचि इससे लज्जित हुआ और मन्त्री से बदला लेने के लिए उसके छिद्र देखने लगा । कुछ समय पश्चात् शकटार अपने पुत्र श्रियक का विवाह करने की तैयारी में लग गया । मन्त्री विवाह की प्रसन्नता में राजा को भेंट करने के लिये शस्त्रास्त्र बनवाने लगा। वररुचि को भी इस बात का पता लगा और बदला लेने का अच्छा अवसर देख कर अपने शिष्यों को निम्नलिखित श्लोक स्मरण करवा दिया।