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________________ २०४ नन्दीसूत्रम् वे एक जंगल में पहुंचे तो ब्रह्मदत्त को अत्यधिक प्यास लगी। राजकुमार को एक वृक्ष के नीचे बैठा कर वरच पानी लेने के लिए चला गया। दीर्घपृष्ठ को जब ज्ञात हुआ तो राजकुमार और वरधनु को ढूंढने और पकड़ लाने के लिए उसने अपने सेवकों को भेजा । राजपुरुष खोज करते-करते उसी जंगल में पहुंच गए। वरधनु जिस समय सरोवर के पास पानी लेने के लिए पहुंचा तो राजपुरुषों ने उसे देखा और पकड़ लिया। अपने पकड़े जाने पर वरधनु ने जोर से शब्द किया, जिसका संकेत पाकर राजकुमार भाग गया। राजपुरुषों ने वरधनु से राजकुमार का पता पूछा ? परन्तु उसने कुछ न बताया तो उसे मारना पीटना आरम्भ किया; जिससे वह निश्चेष्ट होकर गिर पड़ा। राजपुरुष उसे मरा समझ वहां से चले गए। राजपुरुषों के चलें जाने पर वरधनु वहां से उठा और राजकुमार को ढूंढने लगा, पर उसका कहीं पर पता न लगा और अपने सम्बन्धियों को मिलने के लिये वापिस घर पर आ गया। मार्ग में उसे संजीवन और निर्जीवन नामक दो ओषधिया मिलीं। कम्पिलपुर के पास जब वह पहुंचा तो उसे एक चाण्डाल मिला, जिसने वरधनु को बतलाया कि तुम्हारे परिवार के सभी व्यक्तियों को राजा ने बन्दी बना लिया है । यह सुनकर चाण्डाल को प्रलोभन देकर अपने वश करके उसे निर्जीवन ओषधि दी और शेष संकेत समझा दिये । आदेशानुसार चाण्डाल ने निर्जीवन ओषधि कुटुम्ब के मुखिया को दी और उसने अपने सभी कुटुम्ब की आंखों में उसे ऑज दिया, जिससे वे तत्काल निर्जीव सदृश हो गये । मरा जान कर राजा ने चाण्डाल को उन्हें श्मशान में ले जाने की आजादी और वह वरधनु के संकेतानुसार यथोदिष्ट स्थान पर रख आया। संजीवन ओषधि को आंजा और तत्काल सभी स्वस्थ होकर बैठ गये । वरधनु को अपने बीच देख वे बहुत प्रसन्न हुए । वरधनु ने सारा वृत्तान्त उनसे कहा और उनको अपने किसी सम्बन्धी के घर छोड़ कर स्वयं राजकुमार की खोज में निकला। बहुत दूर कहीं जंगल में राजकुमार को ढूंढ लिया। दोनों वहां से चले और अनेक राजाओं के साथ युद्ध करते हुए आगे बढ़ने लगे । अनेक कन्याओं से विवाह किया और छः खण्ड को जीत कर कम्पिलपुर में आये तथा दीर्घपृष्ठ को मार कर स्वयं राज्य को संभाला ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की ऋद्धि का उपभोग करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगा। मन्त्रीपुत्र वरधनु ने ब्रह्मदत्त तथा अपने कुटुम्ब की पारिणामिकी बुद्धि से रक्षा की। वरधनु ने आकर उन सबकी आँखों में १२. चाणक्य - पाटलिपुत्र के राजा नन्द ने कुपित होकर चाणक्य नामक ब्राह्मण को अपने नगर से निकल जाने की आज्ञा दी। चाणक्य संन्यासी का वेष धारण कर वहां से चल पड़ा और घूमता-फिरता हुआ मौयं ग्राम में जा पहुंचा। उस ग्राम की किसी क्षत्राणी को चन्द्रपान का दौहृद उत्पन्न हुआ था। उसका पति असमञ्जस में पड़ गया कि किस प्रकार स्त्री की भावना पूरी की जाये ? दोहला पूरा न होने से उसकी स्त्री प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। एक दिन संन्यासी के वेष में घूमते हुए चाणक्य से क्षत्री ने पूछा तब चाणक्य ने स्त्री का दोहला पूरा कर देने का वचन दिया। तत्पश्चात् ग्राम के बाहिर एक मण्डप बनवाया उसके ऊपर एक वस्त्र तान दिया गया। चाणक्य ने उस वस्त्र में चंद्राकार छिद्र निकाला और पूर्णिमा की रात्रि को छिद्र के नीचे पाली में पेय पदार्थ रख दिया तथा क्षत्राणी को भी बुला लिया। जब चन्द्र उस छिद्र के ऊपर आया और उसका प्रतिबिम्ब थाली में पड़ने लगा तब चाणक्य ने स्त्री से कहा"लो, यह चन्द्र है, इसे पी जाओ ।" स्त्री प्रसन्नता से उसे पीने लगी, जैसे ही वह पी चुकी, ऊपर से छिद्र पर कपड़ा डाल कर बन्द कर दिया । चन्द्र का प्रकाश आना भी बन्द हो गया तो क्षत्राणी ने भी समझ
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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