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पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण
एक समय
शिष्य ने गुरु को मेंढक के मरने की बात याद कराई और प्रायश्चित्त लेने को कहा । परन्तु 'यह सुन कर तपस्वी को क्रोध आ गया और शिष्य को मारने के लिए उठा । मकान में अंधेरा था। अतः क्रोध के वशी- . भूत होकर कुछ भी दिखाई नहीं दिया और जोर से स्तम्भ के साथ जा टकराया, टकराते ही तपस्वी की मृत्यु हो गई। मर कर वह तपस्वी ज्योतिषी देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यव कर दृष्टि-विष सर्प बना और जातिस्मरण ज्ञान से अपने पूर्व जन्म को देखा। तब वह पश्चात्ताप करने लगा कि मेरी दृष्टि से किसी प्राणी की घात न हो जाये । अतः वह प्रायः बिल में ही रहने लगा।
एक समय किसी राजपूत्र को किसी सांप ने काट खाया, जिससे तत्काल ही वह मर गया। इस कारण राजा को क्रोध आया और गारुडियों को बुला कर राज्य भर के सपों को पकड़ कर मारने की आज्ञा दी। सर्प पकड़ते समय वे उस दृथिविष के पास पहुंच गये और बिल पर ओषधि छिड़क दी, उसके प्रभाव से सर्प बाहिर आने लगा। "मेरी दृष्टि से मेरे मारने वालों का हनन न हो," इस उद्देश्य को सामने रख सर्प ने पंछ को पहिले बाहिर निकाला। ज्यों-ज्यों वह बाहिर निकलता गया, वे उसके शरीर के टुकड़े करते गये। फिर भी सर्प ने समभाव रखा और मारने वालों पर किंचित्मात्र भी रोष नहीं किया।.मरते समय परिणामों की शुद्धि के कारण वह उसी राजा के घर पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ और उसका नाम नागदत्त रखा गया। बाल्यावस्था में ही पूर्व के संस्कारों के कारण उसे वैराग्य हो गया और संयम धारण कर लिया। विनय, सरलता, क्षमा आदि असाधारण गुणों से वह मुनि देव-वन्दनीय हो गया। पूर्व भव में वह तिथंच था, अंतः उसे भूख का परीषह अधिक पीड़ित करता, इसी कारण वह तपस्या करने में असमर्थ था।
उसी गच्छ में एक से एक अधिक चार तपस्वी थे। नागदत्त मुनि उन तपस्वियों की त्रिकरण से सेवा-भक्ति, वैयावृत्य करता था। एक बार नागदत्त मुनि की वन्दनार्थ देव आये। तपस्वियों को यह देख कर ईर्षाभाव उत्पन्न हो गया। एक दिन नागदत्त मुनि अपने लिये गोचरी लेकर आया। उसने विनय पूर्वक तपस्वी मुनियों को आहार दिखाया । परन्तु ईर्षावश उन्होंने उसमें थूक दिया । यह देख कर मुनि नागदत्त ने क्षमा धारण किये रखा, उसके मन में लेश मात्र भी रोष नहीं आया, वह अपनी निन्दा तथा तपस्वियों की प्रशंसा ही करता रहा । उपशान्त वृत्ति और परिणामों की विशुद्धता होने से नागदत्त मुनि को उसी समय केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवगण कैवल्य का उत्सव मनाने के लिए आये । यह देख तपस्वियों को अपने कृत्य पर पश्चात्ताप होने लगा और परिणामों की विशुद्धता से उन्हें भी केवलज्ञान हो गया। नागदत्त मुनि ने विपरीत परिस्थितियों में भी समता का आश्रयण किया, जिससे उसे कैवल्य उत्पन्न हुआ। यह नागदत्त मुनि की पारिणामिकी बुद्धि थी।
११. अमात्यपुत्र-काम्पिल्यपुर के राजा का नाम ब्रह्म, मन्त्री का धनु, राजकुमार का ब्रह्मदत्त और मन्त्रीपुत्र का नाम वरधनु था। राजा ब्रह्म की मृत्यु के पश्चात् राज्य का भार दीर्घपृष्ठ ने संभाला । रानी चुलनी का दीर्घपृष्ठ के साथ अनुचित सम्बन्ध हो गया । दीर्घपृष्ठ और रानी ने कुमार को अपने मार्ग में विघ्न समझ कर उसे समाप्त करने के लिए उसका विवाह कर लाक्षा महल में निवास करने का कार्यक्रम बनाया। कुमार का विवाह कर दिया और पति-पत्नी दोनों के साथ मन्त्री का पुत्र वरधनु भी लाक्षागृह में गया। आधी रात के समय पूर्व से शिक्षित दासों को भेजा और लाक्षाघर में आग लगा दी। तब मन्त्री द्वारा बनवाई गयी सुरंग से राजकुमार और वरधनु बाहिर निकल गये। भागते-भागते जब