SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण हूं।" ऐसा विचारते ही मुनि पुनः संयम में दृढ हो गया। यह नन्दिपेग की पारिणामिकी बुद्धि है कि गिरते हुए मुनि को धर्म में स्थिर करने के लिये नगर में आए। नन्दिषेण के अन्तःपुर को देख कर शिष्य धर्म मार्ग में स्थिर हो गया। ७. धनदत्त-पाठक इस का वर्णन श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के अट्ठारहवें अध्ययन में विशेषरूप से पढ़ सकते हैं। ८. श्रावक-एक गृहस्थ ने स्वदारसन्तोष व्रत ग्रहण किया हुआ था। किसी समय उसने अपनी पत्नि की सखी को देखा और उसके सौन्दर्य को देख कर उस पर आसक्त हो गया। आसक्ति के कारण ' वह हर समय चिन्तित रहने लगा। लज्जा वश वह अपनी भावना किसी प्रकार भी प्रकट नहीं करता था। जब वह चिन्ता और मोहनीय कर्म के कारण दुर्बल होने लगा तो उसकी स्त्री ने आग्रह पूर्वक पति से पूछा, तब उसने यथावस्थित कह दिया। , . - श्रावक की वार्ता सुन कर स्त्री ने विचारा कि इन का स्वदार-सन्तोष व्रत ग्रहण किया हुआ है, फिर भी मोह से ऐसी दुर्भावना उत्पन्न हो गयी है। यदि इस प्रकार कलुषित विचारों में इनकी मत्यु हो जाये तो दुर्गति अवश्यंभावी है। अतः पति के कुविचार हट जाएं और व्रत भी भंग न हो, ऐसा उपाय सोचने लगी। विचार कर पति से कहने लगी-"स्वामिन् ! आप निश्चित रहें, मैं आप की भावना को पूरा कर दूंगी। वह तो मेरी सहेली, है, मेरी बात को वह टोल नहीं सकती और आज ही आपकी सेवा में उपस्थित हो जायेगी। यह कहकर वह अपनी सखी के पास गयी और उससे वही वस्त्राभूषण ले आयी जिनसे आभूषित उसके पति ने देखी थी। निश्चित समय पर उसकी स्त्री उन कपड़ों और आभूषणों से सुसज्जित श्रावक के पास चली गयी। अगले दिन श्रावक स्त्री से कहने लगा कि- "मैं ने बहत अनर्थ किया जो अपने स्वीकृत व्रत को तोड़ दिया।" वह बहुत पश्चात्ताप करने लगा, तब स्त्री ने सारी बात कह दी। श्रावक यह सुन कर प्रसन्न हुआ और अपने धर्मगुरु के पास जाकर आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण कर शुद्धिकरण किया। स्त्री ने अपने पति के धर्म की रक्षा की, यह उस श्राविका की पारिणामिकी बुद्धि है। ६. अमात्य-कांपिल्यपुर में ब्रह्म नामक राजा राज्य करता था, उनकी रानी का नाम चूलनी था। एक समय सुख शय्या पर सोयी हुयी राणी ने चक्रवर्ती के जन्म सूचक चौदह स्वप्न देखे। तत्पश्चात् समय आने पर रानी ने एक परम प्रतापी 'सुकुमार पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम ब्रह्मदत्त रखा । ब्रह्मदत्त की बाल्यावस्था में ही पिता का साया सिर पर से उठ गया। ब्रह्मदत्त बालक था, अत: राज्य का कार्य भार राजा के मित्र दीर्घपृष्ठ को सौंपा गया। दीर्घपृष्ठ योग्यता पूर्वक राज्य कर रहा था। इसी बीच में उसका अन्तःपुर में आना जाना अधिक हो गया, जिसके परिणाम स्वरूप रानी के साथ उसका अनुचित सम्बन्ध हो गया। वे दोनों यथा पूर्व वैषयिक सुख भोगने लगे। राजा ब्रह्म के मन्त्री का नाम धनु था। वह राजा का हितैषी था। राजा की मृत्यु के पश्चात् मन्त्री राजकुमार की सर्व प्रकार से देख-भाल करता था। मन्त्री पुत्र-वरधनु और ब्रह्मदत्त दोनों की परस्पर घनिष्ट मैत्री थी। मन्त्री धनु को दीर्घपृष्ठ और रानी के अनुचित सम्बन्ध का पता चल गया और उसने कुमार ब्रह्मदत्त को इसकी सूचना दी तथा अपने पुत्र वरधनु को राजकुमार की रक्षा का
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy