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नन्दीसूत्रम्
उसकी रूप-यौवन सम्पन्न रानी थी। दोनों ही मिष्ट थे। अतः दोनों ने श्रावकवृति धारण की हुई थी। इस प्रकार वे धर्म के अनुसार अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर रहे थे।
एक बार अन्तःपुर में एक परिव्राजिका आयी और रानी जी को शुचि धर्म का उपदेश दिया। परन्तु रानी ने उस की ओर ध्यान न दिया ! परिव्राजिका अपना अनादर समझ कर वहां से कुपित होकर चली गयी। उसने रानी से अपने अपमान का बदला लेने के लिये वाराणसी के राजा धर्मरुचि के पास श्रीकान्ता रानी की प्रशंसा की और वह उसे प्राप्त करने के लिये पुरिमतालपुर नगर पर अपनी सेना लेकर चढ़ आया तथा नगर को चारों ओर से घेर लिया। राजा उदितोदय ने विचारा कि यदि मैं युद्ध करता हूं, तो व्यर्थ में सहस्रों निरापराधियों का वध होगा। ऐसा विचार कर जनसंहार को रोकने के लिये वैश्रवण देव की आराधना के लिये अष्टमभक्त ग्रहण किया। अष्टमभक्त की परिसमाप्ति पर देव प्रकट हुआ। अपनी भावना देव से प्रकट की और फलस्वरूप देव ने रातों-रात वैक्रिय शक्ति से सम्पूर्ण नगर को अन्य स्थान में संहरण कर दिया। वाराणसी के राजा ने जब अगले दिन देखा तो वहां साफ मैदान पाया और हताश होकर अपने नगर में वापिस लौटा गया। राजा उदितोदय ने अपनी पारिणामिकी बुद्धि से अपनी और जनता की रक्षा की।
६. साधु और नन्दिषेण-नन्दिषेण राजगृहके राजा श्रेणिक का सुपुत्र था। यौवनावस्था को प्राप्त होने पर श्रेणिक ने अनेक कुमारियों से उसका पाणिग्रहण कराया। नवोढाएं रूप और सौन्दर्य में अप्सराओं को भी पराजित करती थीं। नन्दिषेन उन के साथ सांसारिक भोग भोगते. हए समय व्यतीत करने लगा
उसी समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर में पधारे। भगवान के पधारने का समाचार महाराज श्रेणिक को मिला और वह अपने अन्त:पुर के साथ भगवान के दर्शनार्थ गया। नन्दिषेन ने भी इस समाचार को सुना और वह भी अपनी पत्नियों सहित दर्शनों को गया। उपस्थित जनता को भगवान ने धर्मोपदेश दिया। उपदेश सुनने पर नन्दिषेण को वैराग्य हो गया, वह घर वापिस गया और मातापिता से आज्ञा लेकर संयम धारण कर लिया। कुशाग्रबुद्धि होने से उसने थोड़े ही समय में अङ्गोपाङ्ग शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। पश्चात् उपदेश देने लगे और बहुत सी भव्यात्माओं को प्रतिबोध देकर दीक्षित किया। फिर भगवान् की आज्ञा से अपने शिष्यों सहित राजगृह से बाहिर विहार कर गये।
ग्रामानुग्राम विचरण करते समय मुनि नन्दिषेण के किसी शिष्य के मनमें संयमवृत्ति के प्रति . अरुचि पैदा हो गयी और वह संयम को छोड़ देने का विचार करने लगा। शिष्य की संयम के प्रति अरुचि जान कर श्री नन्दिषेण ने उसे पुनः संयम में स्थिर करने का विचार किया और राजगृह की ओर विहार कर दिया। . मुनि नन्दिषेण के राजगृह पधारने के समाचार सुन कर महाराजा श्रेणिक अपने अन्तःपुर और नन्दिषेण कुमार की धर्म पत्नियों को साथ लेकर उनके दर्शन करने गया। स्त्रियों के अनुपमरूप यौवन को देख कर वह चंचलचित्त मुनि सोचने लगा-'मेरे गुरुवर्य धन्य हैं जो देव कन्याओं के सदृश्य अपनी पत्नियों और राजसी ठाठ और वैभव को छोड़ कर सम्यकतया संयम की आराधना कर रहे हैं। और मुझे धिक्कार है जो वमन किये विषय-भोगों का परित्याग कर के पुनः असंयम की ओर प्रवृत्त हो रहा