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________________ वैनयिकी बुद्धि के उदाहरण समय आया, तब उसने कहा- "मुझे अमुक दो घोड़े दे दीजिये।" अश्वस्वामी ने कहा-"अरे भाई ! इन दोनों का क्या करेगा?" और जो मनोज्ञ हैं, ले ले । परन्तु वह नहीं माना। तत्पश्चात अश्वस्वामी ने अपनी स्त्री से कहा-"कि यह सेवक वेतन में अमुक घोड़े मांगता है। अत: इसे गृहजामाता बना लेते हैं, नहीं तो यह इन जातिसम्पन्न श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त घोड़ों को वेतन में ले जायेगा।" किन्तु उसकी स्त्री नहीं मानी। तब स्वामी ने उसे समझाया कि इन घोड़ों के रहते हुए और भी गुणयुक्त घोड़े हो जायेंगे और अपने परिवार में भी सभी प्रकार से उन्नति होगी, अन्यथा घोड़े चले जाने से सभी प्रकार से हानी होगी। यह सुन कर वह मान गई और अश्वरक्षक से कन्या का विवाह करके गृहजामाता बना लिया। यह अश्वस्वामी की विनय से उत्पन्न बुद्धि है। .... ग्रन्थि-पाटलीपुत्र में मुरुण्ड नामक राजा रहता था। किसी अन्य राजा ने मुरुण्ड राजा को तीन विचित्र वस्तुएँ भेजीं, जैसे-ऐसा सूत जिसका किनारा नहीं था । एक लाठी जिसकी गांठ का पता न लगे और एक डिब्बा जिसके द्वार का पता न लग सके । उन सब पर लाख को ऐसा चिपकाया था कि किसी को ज्ञात न हो सके । राजा मुरुण्ड ने यह कौतुक सभी सभासदों को दिखाया । परन्तु किसी को ज्ञात न हो सका कि क्या कारण है। तब राजा ने आचार्य पादलिप्त को सभा में बुलाकर पूछा____ "भगवन् ! क्या आप जानते हैं कि यह क्या रहस्य है ?" आचार्य बोले-"हाँ मैं जानता हूँ।" आचार्य ने गर्म पानी में सूत्र को डाला । गर्म पानी से लाक्षा गल गई और सूत्र का किनारा दिखाई दिया। इसी प्रकार यति भी पानी में डाली जो गांठ वाला भारी किनारा था वह पानी में डूब गया, उससे ज्ञात हआ कि यष्टि में अमुक किनारे पर गांठ है। फिर डिब्बे को भी गर्म पानी में डाला, लाक्षा पिघल जाने से डिब्बे का द्वार दिखाई दिया। राजा ने आचार्य से पूछा, "महाराज ! आप भी ऐसा कोई कौतुक करें, जिसे मैं वहाँ पर भेज सकू।" तब आचार्य ने तुम्बे का एक खण्ड सावधानी से हटा कर उसमें रत्न भर दिये तथा तुम्बे को बड़ी सावधानी से बन्द कर दिया और परराष्ट्र के पुरुषों से कहा- "इसे तोड़े बिना इसमें से रत्न निकाल लेना। परन्तु वे ऐसा न कर सके । यह पादलिप्ताचार्य की विनयजा बुद्धि है। १०. अगद-किसी नगर में एक राजा राज्य करता था । परन्तु उसके पास सेना बहुत थोड़ी थी। अतः उसके शत्रु राजा ने उसके राज्य को चारों ओर से घेर लिया। परचक्र से घिरने पर राजा ने कहा-"कि जिसके पास भी विष हो, वह ले आए, जिससे पानी में डाल कर शत्रुओं को नष्ट किया जा सके।" तब राजाज्ञा से पानी को विषमय बना दिया। उसी समय एक वैद्य जी परिमित विष लेकर आया और राजा को समर्पण कर कहा-“देव ! यह लीजिये विष लाया हूँ।" राजा अल्पमात्रा में विष को देख कर वैद्य पर क्रुद्ध हुआ। वैद्य ने निवेदन किया-"महाराज ! यह सहस्रभेदी विष है, आप क्रोध न करें।" राजा ने पूछा- "यह कैसे हो सकता है ?" तब वैद्य ने राजा से प्रार्थना की-"देव ! कोई बूढ़ा हाथी लाइए।" हाथी आने पर वैद्य ने उसकी पूंछ का एक बाल उखाड़ा और उस स्थान पर विष का संचार किया। विष जहाँ-जहाँ लगता गया वही स्थान नष्ट होता गया । वैद्य ने राजा से पुनः कहा-"महाराज ! यह हाथी विषमय हो गया है।" अतः जो भी इसको खायेगा, वह भी विषमय बन जायेगा । इसी लिए, इस विष को सहस्रवेधि कहा जाता है।" हाथी की हानि देख कर राजा बोला"कोई उपाय है, जिससे यह फिर ठीक हो जावे ।" वैद्य वोला-"हाँ देव ! उपाय है।" वैद्य ने पूंच्छ के उसी रन्ध्र में अन्य औषध का संचार किया और शीघ्र ही हाथी स्वस्थ हो गया। विष के प्रयोग में वैद्य की विनयजा बुद्धि का यह उदाहरण है।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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