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नन्दीसूत्रम्
एक दिन उस व्यक्ति को कुछ जुआरी मिल गये और उन से अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया । जुआरियों ने कहा - " कि हम तुम्हारी धरोहर दिला देवेंगे और उससे संकेत कर के चले गये । उसके बाद जुआरी गेरुए रंग के कपड़े पहन कर संन्यासियों का वेष धारण कर हाथ में सोने की सृष्टिया ले चले गये और भिक्षु के पास पहुँच कर उन्होंने कहा - "हम विदेश में परिभ्रमण के लिये जा रहे हैं । हमारे पास ये सोने की खुटियाँ हैं, आप इन्हें अपने पास रख लें। क्योंकि आप बड़े सत्यवादी महात्मा हैं।" उसी समय वह धरोहर वाला व्यक्ति भी पूर्व संकेतानुसार वहां जी ! वह हजार मोहरों की थैली मुझे वापिस दे दीजिए।" के सामने सृष्टियों के लोभवश तथा अपने अपयश के भय से लौटा दीं। वह अपनी थैली लेकर चलता बना । पीछे से संन्यासी भी कार्यवश भ्रमण करने के कार्यक्रम को स्थगित करने के बहाने अपने घर वापिस लौट गये। भिक्षु अपने किये पर पश्चात्ताप करने लगा । यह जुआरियों की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है।
आ गया और महात्मा से कहा - " महात्मा महात्मा उन आगंतुक वेषधारी संन्यासियों इन्कार नहीं कर सका और हजार मोहरें
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गये
२३. चेटक-निधान—दो व्यक्ति परस्पर घनिष्ट मित्र थे । किसी समय वे बाहिर जंगल प्रदेश में हुए थे । वहाँ उन्हें एक गड़ा हुआ निधान उपलब्ध हो गया । तब उन में से मायावी ने मित्र से कहा - " मित्र ! हम इस निधान को कल शुभ दिन और नक्षत्र में यहाँ से ले जायेंगे ।" दूसरे मित्र ने सरल स्वभाव के कारण उसकी बात को स्वीकार कर लिया और दोनों अपने घर पर लौट आये । घर लौटकर मायावी मित्र उसी रात्रि, उस निधाज के पास वापिस गया, वहाँ से सारा धन निकाल कर उस स्थान पर कोयले भर कर अपने घर चला आया। दूसरे दिन वे दोनों मित्र पूर्व निश्चयानुसार निधान की जगह पर गये । वहाँ जाकर उन्हें धन के स्थान पर कोयले मिले। यह देख कर मायावी दोहथड़ मार सिर और छाती पीट कर रोने लगा और कहने लगा- "हाय हम कितने भाग्यहीन हैं, कि देव ने आखें देकर हम से छीन लीं, जो हमें निपान दिखा कर कोयले दिखाये । इस प्रकार बार-बार कहता और दूसरे मित्र से अपने कपट को छिपाने के लिए उसकी ओर देखता भी जाता यह दृश्य देख कर सरल मित्र को ज्ञात हो गया कि यह सारी कारवाई इसी की है। उसने अपने भावों को छिपाते हुये मायावी को सान्तवना देते हुए कहा - " मित्र ! क्यों रोते हो, इस प्रकार खेद और दुःख प्रकट करने से निघान वापिस थोड़े ही आयेगा ?" इस प्रकार वे वहाँ से अपने २ घर पर वापिस चले आए।
सरल स्वभावी मित्र ने इस बात का बदला लेने के लिये, मायावी मित्र की सजीव जैसी प्रतिकृति बनवायी और दो बन्दर पाल लिये । वह प्रतिमा के हाथों, जंघा, शिर, पैर आदि पर बन्दरों के खाने योग्य वस्तु रख देता और प्रतिदिन वे खा जाय़ा करते । यह नित्य प्रति का काम हो गया। इस प्रकार बन्दर प्रतिमा से परिचित हो गये और बिना पदार्थों के भी उस से खेलते रहते।
तत्पश्चात् एक पर्व दिन पर सरलने मायावी मित्र के घर जाकर कहा कि "आज अमुक पर्व है, हमने खाना बना रखा है । आप अपने दोनों पुत्रों को मेरे साथ भेज दीजिए । भोजन के समय दोनों पुत्र वहाँ पर आगये बड़े आदर से उनको भोजन कराया और पीछे दोनों को सुख पूर्वक किसी स्थान पर छिपा कर रख छोड़ा। जब थोड़ा सा दिन शेष रहा, तब मायावी अपने बच्चों को बुलाने के लिए आया । मित्र के आने का समाचार जान कर सरल स्वभावी ने प्रतिमा को वहाँ से उठा दिया और आसन बिछा कर मायावी को वहाँ सम्मान पूर्वक बैठा कर कहने लगा- "मित्र आपके दोनों लड़के बन्दर हो गये हैं,