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नन्दीसूत्रम् अन्वाय-फल जोगा-अव्याहत फल-बाधा रहित परिणाम का योग होता है, बद्धी-ऐसी बुद्धि उप्पत्तियानाम- औत्पत्तिकी बुद्धि कही जाती है।
भावार्थ-जिस बुद्धि के द्वारा पहले बिना सुने और बिना जाने ही पदार्थों के विशुद्ध अर्थ-अभिप्राय को तत्काल ही ग्रहण कर लिया जाता है और जिस से अव्याहत-फलवाधारहित परिणाम का योग होता है, उसे औत्पत्ति की बुद्धि कहा गया है।
१. औत्पत्तिकी बुद्धि के उदाहरण मूलम्—२. भरह-सिल-मिंढ-कुक्कडतिल-बालुय-हत्थि-अगड-वणसंडे ।
पायस-अइना-पत्ते, खाडहिला-पंचपियरो य ॥७०॥ छाया-२. भरत-शिला-मेंढ-कुक्कुट, तिल-वालुका-हस्यगड-वनखण्डाः ।।
पायसाऽतिग-पत्राणि, खाडहिला-पञ्चपितरश्च ॥ ७० ॥ मूलम्–३. भरह-सिल पणिय रुक्खे, खुडुग पड सरड काय उच्चारे।
गय घयण गोल खम्भे, खुडुग-मगि त्थि पइ पुत्ते ॥७१॥ छाया-३. भरत-शिला-पणित-वक्षा, भल्लक..मायो..
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क्षुल्लक-पट-सरट-काकोच्चाराः ।। ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૧૫ ૧૬ ૧૭ म्भाः, क्षुल्लक-मार्ग-स्त्र
-पति-पूत्राः ॥७१॥
गज
मूलम् –४. महुसित्थ मुद्दि अंके (य), नाणए भिक्खु चेडगनिहाणे।
___ सिक्खा य अत्थसत्थे, इच्छा य महं सयसहस्से ॥७२॥ छाया–४. मधुसिक्थ-मुद्रिका-अङ्कानायक-भिक्षु-चेटकनिघानानि ।
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२५ २६ _ शिक्षा च अर्थशास्त्रम्, इच्छा च महत्-शतसहस्रम् ॥७२॥ टीका-आगमों में तथा काव्य, नाटक, उपन्यास आदि ग्रन्थों में उन बुद्धिमानों का स्थान सर्वोपरि