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श्रौत्पत्तिकी बुद्धि
टीका-इस सूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान को दो हिस्सों में विभक्त किया है, एक श्रुतनिश्रित और दूसरा अश्रुतनिश्रित । जो श्रुतज्ञान से सम्बन्धित मतिज्ञान है, उसे श्रुतनिश्रित कहते हैं और जो तथाविध क्षयोपशम भाव से उत्पन्न हो, उसे अश्रतनिश्रित मतिज्ञान कहते हैं। इस विषय में भाष्यकार लिखते हैं
.. "पुब्वं सुअपरिकम्मियमइरस, जं सपयं सुयाईयं ।।
तनिस्सियमियरं पुण, अणिस्सियं मइचउक्कं तं ॥" यद्यपि पहले श्रृतनिश्रत मति का वर्णन करना चाहिए था, फिर भी सूचीकटाह न्याय से अश्रुतनिश्रित का वर्णन अल्पतर होने से सूत्रकार ने पहले उसी के चार भेद वर्णन किए हैं, जैसे कि
(१) औत्पत्तिकी (हाज़र जवाबी बुद्धि) जिसका क्षयोपशम इतना श्रेष्ठ है जिसमें ऐसी अच्छी यक्ति सझती है कि जिससे प्रश्न कार निरुत्तर होजाए, जनता पर अच्छा प्रभाव पडे, राजसम्मान मिले, हेलया आजीविका भी मिल जाए और बुद्धिमानों का पूज्य बनजाए। ऐसी बुद्धि को औत्पत्तिकी कहते हैं।
(२) वैनयिकी-माता-पिता, गुरु-आचार्य आदि की विनय-भक्ति करने से उत्पन्न होने वाली बुद्धि को वैनयिकी कहते हैं।
(३) शिल्प-दस्तकारी-हुनर, कला, विविध प्रकार के कर्म करने से जो तविषयक नई सूझ-बूझ होती है, वह कर्मजा बुद्धि कहलाती है।
(४) पारिणामिकी-जैसे २ आयु परिणमन होती है तथा पूर्वापर पर्यालोचन के द्वारा बोध प्राप्त होता है, ऐसी पवित्र एवं परिपक्व बुद्धि को पारिणामिकी कहते हैं।
तीर्थंकर तथा गणधरों ने उक्त चार प्रकार की अश्रुतनिश्रित बुद्धि बताई हैं । पाँचवीं बुद्धि केबलियों के ज्ञान में भी अनुपलब्ध ही है। सर्व अश्रुतनिश्रित मति का उक्त चारों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। इसी कारणं सूत्रकर्ता ने भी कथन किया है, कि___बुद्धी चउब्विहा वुत्ता पंचमा नोवलब्भइ अर्थात् बुद्धि चार प्रकार की ही है, पांचवीं बुद्धि कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होती।
१. औत्पत्तिकी बुद्धि का लक्षण मूलम्-१. पुव्व-मदिट्ठ-मस्सुय-मवइय, तक्खण विसुद्धगहियत्था ।
अव्वाहय-फलजोगा, बुद्धी उप्पत्तिया नाम ॥ ६६ ॥ छाया-१. पूर्व-मदृष्टाऽश्रुतऽवेदित-तत्क्षण-विशुद्धगृहीतार्था ।
अव्याहतफलयोगा, बुद्धिरौत्पत्तिकी नाम ।। ६६ ॥ पदार्थ—पुज्व-मदिट्ठ- मस्सुय, मवेइय पहले बिना देखे, बिना सुने, और बिना जाने-तक्खण, तत्काल ही विसुद्धगहियस्था-पदार्थों के विशुद्ध अर्थ-अभिप्राय को ग्रहण करने वाली, और जिसके द्वारा