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मति और श्रुत के दो रूप
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सभी द्रव्यों का, मनुष्य में सभी मनुष्यों का अन्तर्भाव हो जाता है, किन्तु आम्रफल, जीवद्रव्य, मुनिवर, ऐसा कहने से विशेषता सिद्ध होती है। इसी प्रकार स्वामी के बिना मति शब्द ज्ञान और अज्ञान दोनों रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है, किन्तु जब हम विशेष रूप से ग्रहण करते हैं, तब सम्यग्दृष्टि जीव की 'मति' मति ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि की ‘मति' मति अज्ञान है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, प्रमाण-सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी इनके द्वारा प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप का निरीक्षण करके सत्यांश को ग्रहण करता है और असत्यांश का परित्याग करता है। उसकी मति सबकी भलाई की ओर प्रवृत्त होती है, आत्मोत्थान तथा परोपकार की ओर भी प्रवृत्त होती है। इससे विपरीत मिथ्यादृष्टि की 'मति' अनन्त धर्मात्मक वस्तु में एक धर्म का अस्तित्व स्वीकार करती है, शेष धर्मों का निषेध करती है । जो धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा को अहिंसा ही समझता है, जिस क्रिया से संसार की वृद्धि हो, पतन हो, दुखों की परम्परा बढ़ती हो, ऐसे अशुभ कार्य में प्रवृत्ति करने वाले जीव की मति अज्ञान रूप होती है।
इसी प्रकार श्रुत के विषय में समझना चाहिए। श्रुत शब्द भी ज्ञान-अज्ञान दोनों के लिए प्रयुक्त होता है, यह सामान्य है, और जब श्रुत का स्वामी सम्यग्दृष्टि होता है, तब उसे जान कहते है तथा जब श्रत का स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है, तब उसे अज्ञान कहते हैं। सम्यग्दृष्टि का शब्दज्ञान आत्मकल्याण और परोन्नति में प्रवृत्त होता है, मिथ्यादृष्टि का शब्दज्ञान आत्मपतन और परावनति में प्रवृत्त होता है । सम्यग्दृष्टि अपने श्रुतज्ञान के द्वारा मिथ्याश्रुत को भी सम्यक्श्रुत के रूप में परिणत कर लेता है, एवं मिथ्यादृष्टि सम्यकश्रुत को भी मिथ्याश्रुत के रूप में परिणत कर लेता है । वह मिथ्याश्रुत के द्वारा संसार चक्र में परिभ्रमण की सामग्री जुटाता है।
सारांश इतना ही है कि सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्ज्ञान से वस्तुओं के यथार्थ तत्त्व को जान कर केवल मोक्ष को ही उपादेय मानता है, संसार और संसार के हेतुओं को हेय एवं परित्याज्य मानता है। जो वीतराग देव ने मोक्ष का उपाय बताया है, वही अर्थरूप है, शेष अनर्थ रूप । जब कि मिथ्यादृष्टि जीव पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को न जानता हुआ केवल सांसारिक तथा वैषयिक सुख को अपने जीवन का परमध्येय समझता है। आत्मा परमात्मा नहीं बन सकता, स्वर्ग ही मोक्ष है, वस्तुतः मोक्ष कोई वस्तु नहीं है, मोक्ष का गगनारविन्द की तरह सर्वथा अभाव है, मोक्ष के उपायों को पाखण्ड और ढोंग समझता है, यही उसकी अज्ञानता है। . ज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्ति,और निर्वाण पद की प्राप्ति तथा आध्यात्मिक सुखों का अनुभव करना है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव की बुद्धि और शब्दज्ञान, दोनों ही मार्ग प्रदर्शक होते हैं । मिथ्यादृष्टि की मति और शब्दज्ञान दोनों ही विवाद के लिए, कालक्षेप के लिए, विकथा के लिए, जीवन भ्रष्ट तथा पथभ्रष्ट के लिए एवं अपने तथा दूसरों के लिए अहितकर ही होते हैं। भाष्यकार ने अज्ञान का स्वरूप निम्न लिखित प्रकार से वर्णन किया है--
"सय सय विसेसणाओ, भवहेउ जहिच्छिभोवलंभालो।
नाणफलाभावात्रो, मिच्छद्दिट्ठिस्स अण्णाणं ॥" इसका भावार्थ ऊपर लिखा जा चुका है ॥सूत्र २५॥