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परोक्ष ज्ञान
उत्तर में गुरुदेव बोले- भद्र ! परोक्षज्ञांन दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है ।
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जैसे
१. आभिनिबोधिक ज्ञान परोक्ष और २. श्रुतज्ञान परोक्ष । जहां पर आभिनिबोधिक ज्ञान है, वहाँ पर श्रुतज्ञान भी है । जहाँ श्रुतज्ञान है, वहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान है । ये दोनों ही अन्योऽन्य अनुगत हैं । तथापि अनुगत होने पर भी आचार्य यहाँ इनमें परस्पर भेद प्रतिपादन करते हैं - सन्मुख आए हुए पदार्थों को जो प्रमाणपूर्वक अभिगत करता है, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है, किन्तु जो सुना जाता है, वह श्रुतज्ञान है अर्थात् श्रुतज्ञान श्रवण का विषय है, जिसके द्वारा मतिपूर्वक सुन कर ज्ञान हो, वह मतिपूर्वक श्रुतज्ञान है । परन्तु मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं है ।। सूत्र २४ ।।
टीका - इस सूत्र में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का परस्पर सहचारी संबन्ध बतलाया गया है और साथ ही दोनों ज्ञान परोक्ष बताए हैं। पांच ज्ञानेन्द्रिय और छठा मन इनके माध्यम से होने वाले ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहते हैं, उस ज्ञान के दो भेद किए हैं, जैसे कि आभिनिबोधिक और श्रुत । मति शब्द ज्ञान, अज्ञान दोनों के लिए प्रयुक्त होता है, किन्तु आभिनिबोधिक सिर्फ ज्ञान के लिए ही प्रयुक्त होता है, अज्ञान के लिए नहीं । "अभिनिबुज्झइ ति श्रभिणिबोहि अनाणं अर्थात् अभिमुखं - योग्यदेशे व्यवस्थितं, नियत'मर्थमिन्द्रियद्वारेण बुध्यते— परिच्छिनत्ति श्रात्मा येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषो ज्ञानापरपर्याय श्रभिनिबोधिकं, तथा शृणोति वाच्यवाचकभावपुरस्सरं श्रवणविषयेन शब्देन सह संस्पृष्टमर्थं परिच्छिनत्तिश्रात्मा येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषः श्रुतम् ।”
इसका सारांश इतना ही है कि जो सम्मुख आए हुए पदार्थों को इन्द्रिय और मन के द्वारा जानता है, उस परिणाम विशेष को आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं । और जो शब्द को सुनकर वाच्य का ज्ञान तथा अर्थो पर विचार करता है, वह परिणाम विशेष श्रुतज्ञान कहलाता है । इन दोनों का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है | जैसे सूर्य और प्रकाश का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, जहाँ एक है, वहां दूसरा नियमेन होगा । मइपुब्वं जेण सुयं, न मई, सुप्रपुब्विया - श्रुतज्ञान अर्थात् शब्दज्ञान मतिपूर्वक होता है, किन्तु श्रुतपूर्विका मति नहीं होती । जैसे वस्त्र में ताना बाना (पेटा) साथ ही है, फिर भी ताना पहले तन जाने पर ही बांना काम देता है, किन्तु वस्त्र में जहां ताना है, वहां बाना है और जहां बाना है वहां ताना भी है । ऐसा व्यवहार में कहा जाता है। प्रकाश पहले था सूर्य पीछे, ऐसा नहीं कहा जाता ।
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यहां शंका उत्पन्न होती है कि एकेन्द्रिय जीवों के मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान ये दोनों कथन किए गए हैं, जब उनके श्रोत्र का ही अभाव है तो फिर श्रुतज्ञान किस प्रकार माना जा सकता है ?
इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि आहारादि संज्ञाएं एकेन्द्रिय जीवों में भी होती हैं । वे अक्षर रूप होने से भावश्रुत उनके भी होता है । इसका विवेचन यथास्थान आगे किया जाएगा। यहां पर तो केवल इस विषय का दिग्दर्शन कराया है कि ये दोनों ज्ञान एक जीव में एक साथ रहते हैं, जैसे कि सूत्रकार ने कहा है कि “दो वि एयाइं श्ररणमण्णमणुगयाइं -- श्रर्थात् द्वेऽप्येते — श्राभिनिबो धिकश्रुते, अन्योऽन्यानुगते - परस्परं प्रतिबद्धे । ” ये दोनों ज्ञान परस्पर प्रतिबद्ध होने पर भी जो भेद है, उसका दिग्दर्शन कराया गया है । मतिज्ञान वर्तमान कालिक वस्तु में प्रवृत्त होता है और श्रुतज्ञान त्रैकालिक विषयक होता