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आचार्यपद-वि० सं० २००३. चैत्रशुक्ला त्रयोदशी महावीर जयन्ती के शुभ अवसर पर पंजाब प्रान्तीय श्रीसंघ ने एकमत होकर एवं प्रतिष्ठित मुनिवरों ने सहर्ष बड़े समारोह से जनता के समक्ष उपाध्याय श्री जी को पंजाब संघ के आचार्य पद की प्रतीक चादर महती श्रद्धा से ओढाई। जनता के जयनाद से आकाश गूंज उठा। वह देवदुर्लभ दृश्य आज भी स्मृति पट में निहित है जो कि वर्णन शक्ति से बाहर है।
श्रमण संधीय आचार्यपद-वि० सं० २००६ में अक्षय तृतीया के दिन सादड़ी नगर मे वृहत्साधु सम्मेलन हुआ। वहां सभी आचार्य तथा अन्य पदाधिकारियों ने संवैक्यहित एक मन से पदवियों का विलीनीकरण करके श्रमणसंघ को सुंसगठित किया, और नई व्यवस्था बनाई। जब आचार्य पद के निर्वाचन का समय आया, तब आचार्य पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज का नाम अग्रगण्य रहा। आप उस समय शरीर की अस्वस्थता के कारण लुधियाना में विराजित थे। सम्मेलन में अनुपस्थित होने पर भी आप को ही आचार्यपद प्रदान किया। जनगण-मानस में आचार्य प्रवर जी के व्यक्तित्व की छाप चिरकाल से पड़ी हुई थी। इसी कारण दूर रहते हुए भी श्रमणसंघ ने आप को ही श्रमणसंघ का आचार्य बनाकर अपने आप को धन्य मानने लगा। लगभग दस वर्ष आपने श्रमणसंघ की दृढ़ता से नायक सेवा की और अपना उतरदायित्व यथाशक्य पूर्णतया निभाया। · पण्डितमरण- वि० सं० २०१८ में आप श्री जी के शरीर को लगभग तीन महीने कैंसर महारोग ने घेरे रखा था। महावेदना होते हुए भी आप शान्त रहते थे। दूसरे को यह भी पता नहीं चलता था कि आपका शरीर कैंसर रोग से ग्रस्त है। आपकी नित्य क्रिया वैसे ही चलती रही, जैसे कि पहले। सन् १९६२ जनवरी का महीना चल रहा था। आस-पास विचरने वाले तथा दूर दूर से भी साधु-साध्वियां अपने प्रियशास्ता के दर्शनार्थ आए। दर्शनार्थ आए हुए साधुओं की संख्या ७१ थी और साध्वियों की संख्या ४० के करीब हो गई थी। - कैंसर का रोग प्रतिदिन उपचार होने पर भी बढ़ता ही गया। जिससे आप श्री जी के भौतिक वपुरत्न में शिथिलता अधिक से अधिक बढ़ती चली गयी। अन्ततोगत्वा आप श्री जी ने दिनाँक ३०-१-६२ को प्रातः दस बजे अपच्छिममारणन्तिय संलेखना करके अनशन कर दिया। दिन भर दर्शनार्थियों का तान्ता लगा रहा, आचार्य प्रवर जी शान्तावस्था में होश के साथ अन्तर्ध्यान में मग्न रहे। रात के दस बजे के समीप डा० श्यामसिंह जी आए और पूज्यश्री से पूछा- 'अब आप का क्या हाल है?' पूज्य श्री जी ने शान्तचित से उतर दिया - "अच्छा हाल है," इतना कहकर पुन : अन्तर्ध्यान में संलग्न हो गए। ज्वर १०६ डीगरी .का चढा हुआ था, किन्तु देखने वालों को ऐसा प्रतीत होता था कि इन्हें कोई भी पीडा नहीं है। इतनी महावेदना होने पर भी परम शान्ति झलक रही थी। रात के १२ बजे तारीख बदली और ३१ जनवरी प्रारंभ हुई। रात के दो बजे का समय हुआ, मैं भी उस समय सेवा में उपस्थित था। ठीक दो बजकर २० मिनट पर पूज्य श्री आत्माराम जी म० अमर हो गए। माधवदी नौमी और दसमी की मध्यरात्रि को नश्वर शरीर का परित्याग किया। संयम शीलता, सहिष्णुता, गम्भीरता, विद्वता, दीर्घदर्शिता, सरलता, नम्रता, तथ पुण्यपुंज से वे महान थे। उन के प्रत्येक गुण मुमुक्षुओं के अनुकरणीय हैं। यह है नन्दीसूत्र के हिन्दी व्याख्याकार की अनुभूत और संक्षिप्त दिव्य कहानी।
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