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________________ बालक की अन्तरात्मा की भूख एकदम भड़क उठी, पूज्य आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज से बातचीत की और अपने हृदय के भाव मुनिसुत्तम के समक्ष रखे। पूज्य श्री जी ने होनहार बालक के शुभलक्षण देखकर अपने साथ रखने के लिए स्वीकृति प्रदान की। कुछ ही महीनों में कुशाग्रबुद्धि होने से बहुत कुछ सीख लिया। इससे आचार्य श्रीमोतीराम जी महाराज को बहुत सन्तुष्टि हुई। प्रत्येक दृष्टि से परख कर दीक्षा के लिए शुभमुहूर्त निश्चित किया। दीक्षा- पटियाला शहर से २४ मील उत्तर दिशा की ओर 'छत्तबनूड' नगर में मुनिवर पहुंचे। वहाँ वि० सं० १६५१ आषाढ़ मास शुक्ल पंचमी को श्रीसंघ ने बड़े समारोह से दीक्षा का कार्यक्रम सम्पन्न किया। दीक्षागुरू श्रद्धेय श्रीशालीग्राम जी बने और विद्यागुरू आचार्य श्रीमोतीराम जी महाराज ही रहे हैं। दीक्षा के समय नवदीक्षित श्री आत्माराज जी की आयु कुछ महीने कम बारह वर्ष की थी, किन्तु बुद्धि महान थी। ज्येष्ठ-श्रेष्ठ शिष्यरत्न-रावलपिण्डी के ओसवाल विंशति वर्षीय वैराग्य एवं सौन्दर्य की साक्षात् मूर्ति श्री खजानचन्द जी की वि० सं० १९६० फाल्गुन शुक्ला तृतीया के दिन गुजरांवाला नगर में श्रीसंघ ने बड़े उत्साह और हर्ष से दीक्षा का कार्यक्रम सम्पन्न किया। उनके दीक्षागुरू और विद्यागुरू मुनिसुत्तम परमयोगी श्री आत्माराम जी महाराज बने। गुरू और शिष्य दोनों के शरीर तथा मन पर सौन्दर्य की अपूर्व छटा दृष्टिगोचर हो रही थी। जब दोनों व्याख्यान में बैठते थे, तब जनता को ऐसा प्रतीत होता था मानों सूर्य चन्द्र एक स्थान में विराजित हों। जब अध्ययन और अध्यापन होता था तब ऐसा प्रतीत होता था मानो सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी जी विराज रहे हों, क्योंकि दोनों ही घोरब्रह्मचारी, महामनीषी, निर्भीक प्रवक्ता, शुद्धसंयमी, स्वाध्यायपरायण, दृढ़निष्ठावान, लोकप्रिया एवं संघसेवी थे। उपाध्यायपद-अमृतसर नगर में पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज ने तथा पंजाब प्रान्तीय श्रीसंघ ने वि० सं० १६६८ के वर्ष मुनिवर श्री आत्माराम जी महाराज को उपाध्याय पद से विभूषित किया, क्योंकि उस समय संस्कृत -प्राकृत भाषा के तथा आगमों के और दर्शनाशास्त्रों के उद्भट्ट विद्वान मुनिवर श्री आत्माराम जी म० ही थे। अतः इस पद से अधिक सुशोभायमान होने लगे। स्थानकवासी परम्परा में उस काल की अपेक्षा से सर्वप्रथम उपाध्याय बनने का सौभाग्य श्री आत्माराम जी महाराज को ही प्राप्त हुआ। जैनधर्मदिवाकर- अजमेर में एक वृहत्साधुसम्मेलन १६६० के वर्ष में हुआ, वहां उपाध्याय श्री जी की विद्वता से श्रीसंघ में धाक जम गई। चातुर्मास के पश्चात् जोधपुर से लौटते हुए देहली चान्दनी चौक, महावीर भवन में वि० सं० १६६१वें उपाध्याय जी का चातुर्मास हुआ, वहां के श्रीसंघ ने आपकी विद्वता से प्रभावित होकर कृतज्ञता के रूप में आप को "जैनधर्मदिवाकर"-के पद से सम्मानित किया। साहित्यरत्न-स्यालकोट शहर में स्वामी लालचन्द जी महाराज बहुत वर्षों से स्थविर होने के कारण विराजित थे। वहां की जनता ने कृतज्ञता के परिणाम स्वरूप, उनकी स्वर्ण जयन्ती बड़े समारोह से मनाई। उस समय उपाध्याय श्री जी भी अपने शिष्यों सहित वहां विराजमान थे। वि० सं० १६६३ में स्वर्णजयन्ती के अवसर पर श्रीसंघ ने एकमत से उपाध्याय महाराज जी को 'साहित्यरत्न' की उपाधि से सम्मानित कर कृतज्ञता प्रकट की। नन्दीसूत्र का लेखन का-वि० सं० २००१ वैशाख शुक्ला तृतीया, मंगलवार को नन्दीसूत्र की हिन्दी व्याख्या सिखाना प्रारंभ किया। इस कार्य की पूर्णता वि० सं० २००२ वैशाख शुक्ला त्रयोदशी तिथि में हई। 24
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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