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श्वेताम्बर मान्य तत्वार्थसूत्र का समन्वय नहीं किया, क्योंकि वह तो आगमों से सर्वथा मिलता ही है, किन्तु दिगम्बर मान्य तत्त्वार्थसूत्र से श्वेताम्बर मान्य आगम अधिक प्राचीन हैं।
उमास्वाती जी के यूग में दिगम्बर जैन साहित्य स्वल्पमात्रा में ही था, जब कि श्वेताम्बर मान्य आगम प्रचुर मात्रा में थे तथा अन्य साहित्य भी, इससे यह सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर आगम प्राचीन हैं, जबकि दिगम्बर मान्य षट्खण्डागम आदि आगम अर्वाचीन हैं।
उमास्वाती जी का समय वीर निर्वाण सं० ५वीं शती का होना विद्वान् मानते हैं और कुछ एक विद्वान् विक्रम सं०५:-छठी शती को स्वीकार करते हैं, वास्तव में वे किस शती में हुए हैं ? यह अभी रिसर्च का विषय है। ऐसी तरङ्ग एकवार सिद्धसेन दिवाकर जी के मन में भी उठी थी कि सभी आगमों को तत्वार्थसूत्र की तरह संस्कृत भाषा में सूत्र रूप में निर्माण करूं, किन्तु इसके लिए समाज और उनके गुरू सहमत नहीं हुए, प्रत्युत उन्हें ऐसी भावना लाने का प्रायश्चित करना पड़ा।
नन्दीसूत्र की हिन्दी व्याख्या का आचार्य प्रवर जी ने उपाध्याय के युग में ही लेख कार्य प्रारम्भ करके उसकी इति श्री की है। आप का शरीर वार्धक्य के कारण अस्वस्थ एवं दर्बल अवश्य हो गया थ भी धारणा शक्ति और स्मृति सदा सरस ही रही है। उनमें वार्द्धक्य का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। नेत्रों की विनाई कम होने से आगमों का स्वाध्याय कण्ठस्थ और श्रवण से करते रहे हैं। आपकी आगमों पर अगाधश्रद्धा एवं रूचि थी। इन दृष्टियों से आचार्य प्रवर जी श्रुतज्ञान के आराधक ही रहे हैं।
कब? कहाँ? क्या लाभ हुआ ?
... जन्म-पंजाब प्रान्त जि० जालंधर के अन्तर्गत "राहों' नगरी में क्षत्रिय कुल मुकुट, चोपड़ा वशंज सेठ मनसाराम जी की धर्मपत्नी परमेश्वरीदेवी की कुक्षि से वि० सं० १६३६ भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष, द्वादशी तिथि, शुभ मुहूर्त में एक होनहार पुण्य आत्मा का जन्म हुआ। नवजात शिशु का माता-पिता ने जन्मोत्सव मनाया। अन्य किसी दिन नवजात कुलदीपक का नाम आत्माराम रखा गया। शरीर संपदा से जनता को ऐसा प्रतीत होता था, मानो जैसे कि देवलोक से च्यव कर कोई देव आए हैं।
__ दैवयोग से शैशवकाल में ही क्रमशः माता-पिता का साया सिर से उठ गया। कुछ वर्षों तक आप की दादी ने आप का भरण-पोषण किया, तत्पश्चात वृद्धावस्था होने से उसका भी निधन हो गया। कुछ महीने इधर-उधर रिश्तेदारों के यहां कालक्षेप किया। मन कहीं न लगने से लुधियाना में निकटतर सम्बन्धियों के पहुंचे। किन्तु वहाँ भी मन न लगने से कुछ सोच ही रहे थे, कि अकस्मात् वकील सोहनलाल जी उपाश्रय में विराजित मुनिवरों के दर्शनार्थ जाते हुए मिल गए, उनसे पूछा-"आप कहां जा रहे हैं ?" वकील जी ने कहा-"मैं पूज्यवर श्री मोतीराम जी महाराज के दर्शनार्थ जा रहा हूँ, क्या तुमने भी साथ चलना है ?" आत्माराम जी ने कहा "यदि मुझे भी उनके दर्शन कराओ तो आपकी बड़ी मेहरबानी होगी" इतना कहकर दोनों चल पड़े।
उपाश्रय में मुनिवरों के दर्शन किए। दर्शन करते ही मन आन्नद प्रसन्न हो गया। पूज्य श्री जी ने धर्मोपदेश सीधी-सादी भाषा में सुनाया। शिक्षा के अमृत कण पाकर बालक ने अपने मन में दृढ़संकल्प किया कि मैं भी इन्हीं जैसा बनूँ। यही स्थान मेरे लिए सर्वथोचित है, अब अन्य कहीं पर जाने की आवश्यकता ही नहीं रही, यही मार्ग मेरे लिए श्रेयस्कर है। वकील जी चले गए, उन्हें कुछ जल्दी भी थी जाने की।
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