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ने आगमों से उद्धृत किया। उन सूत्रों का मूलाधार क्या है ? यह रहस्य सदियों से अप्रकाशित रहा, उसी रहस्य का उद्घाटन जब आप पंजाब संप्रदाय के उपाध्याय पद को सुशोभित करते हुए अजमेर में होने वाले वृहत्साधुसम्मेलन में भाग लेने के लिए पंजाब से देहली पधारे, जब वही समन्वय का कार्य सम्पन्न किया। इस महान कार्य की प्रशस्ति महामनीषी पण्डित प्रवर सुखलालजी ने मुक्त कण्ठ से की है, उन्होंने तत्वार्थ सूत्र की भूमिका में लिखा है
. "तथ्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय" नामक जो पुस्तक स्थानकवासी मुनि उपाध्याय आत्माराम जी की लिखी प्रसिद्ध हुई है, वह अनेक दृष्टियों से महत्व रखती है। जहां तक मैं जानता हू, स्थानकवासी परंपरा में तत्वार्थ सूत्र की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता स्पष्ट प्रमाण उपस्थित करने वाला उपाध्याय जी का प्रयास प्रथम ही है यद्यपि स्थानकवासी परम्परा को तत्वार्थ सूत्र और उसके समग्रव्याख्या ग्रन्थों में किसी भी प्रकार . की विप्रतिपत्ति या विमति कभी रही नहीं है तदपि वह परम्परा उसके विषय में कभी इतना रस या इतना आदर बतलाती नहीं थी, जितना अन्तिम कुछ वर्षों से बतलाने लगी है। स्थानकवासी परम्परा का मुख्य आदर एक मात्र बत्तीस आगमों पर ही केन्द्रित रहा है। इसलिए उपाध्याय जी ने उन्हीं आगमों के पाठों को तत्वार्थसूत्र को मूलाधार बतलाकर यह दिखाने का बुद्धिशुद्ध प्रयत्न किया है कि स्थानकवासी परम्परा के लिए तत्वार्थसूत्र का वही स्थान हो सकता है, जो उसके लिए आगमों का है। अगर स्थानकवासी परम्परा उपाध्याय जी के वास्तविक सूचन से अब भी संभल जाए, तो वह तत्वार्थसूत्र और उसके समग्र व्याख्या ग्रन्थों को अपना कर अर्थात् गृहस्थ और साधुओं में उन्हें अधिक प्रचारित करके शताब्दियों के अविचार मल का थोड़े ही समय में प्रक्षालन कर सकती है। उपाध्याय जी का “समन्वय" जहां तक एक ओर स्थानकवासी परम्परा के वास्ते मार्गदीपिका का काम कर सकता है, वहां दूसरी ओर वह ऐतिहासिकों व संशोधकों के वास्ते भी बहुत उपयोगी है। श्वेताम्बर हो या जैनेतर हो जो भी तत्वार्थ सूत्र के मूल स्थानों को आगमों में से देखना चाहे और इस पर ऐतिहासिक या तुलनात्मक विचार करना चाहे, उसके वास्ते वह समन्वय बहुत ही कीमती है।"
यह है समन्वय के विषय में महामनीषी पण्डित जी के हार्दिक उद्गार | पूज्यवर जी ने यह सिद्ध । किया है कि जिन आगमों का आधार लेकर वाचक उमास्वाती जी ने जिस तत्वार्थसूत्र का निर्माण किया है, वे श्वेताम्बर मान्य आगमों के आधार पर ही किया है। यद्यपि कतिपय ऐसे सूत्र भी तत्त्वार्थसूत्र में हैं जिनका समन्वय वर्तमान में उपलब्ध आगमों से नहीं हो सका, किन्तु ऐसे सूत्र इने गिने ही हैं।
तत्वार्थसूत्र और जैनागम समन्वय नामक यह पुस्तक दिगंबराम्नाय के धुरन्धर पण्डितों के हाथ को जब सुशोभित करने लगी, तब उन्होंने उमास्वाती जी से पूर्वप्रणीत दिगम्बरमान्य षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द आचार्य प्रणीत ग्रन्थों के आधार पर समन्वय करने का श्रीगणेश किया। वे समन्वय करने में वर्षों यावत् अनथक परिश्रम करते रहे। निरन्तर परिश्रम अनेक पण्डितों के द्वारा करने पर भी कुछ ही सूत्रों का समन्वय करने पाए, अन्ततोगत्वा हताश हो कर इस ओर उपेक्षा ही कर ली। जब कि आचार्य प्रवर जी ने दस दिनों में ही समन्वय कार्य सम्पन्न कर लिया था। यह है उनकी स्मृति और आगमाभ्यास का अद्भुत चमत्कार ।
दिगम्बरमान्य तत्वार्थ सूत्र में कुछ ऐसे सूत्र भी हैं जो मतभेद जनक नहीं है, उनसे न किसी का खण्डन होता है और न किसी संप्रदाय की पुष्टि ही होती है, फिर भी पूर्णतया समन्वय नहीं हो सका, शेष सभी सूत्रों का समन्वय आगमों से 'रेख में मेख' जैसी उक्ति पूज्य श्री जी ने चरितार्थ कर दी। उन्होंने
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