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________________ औषधोपचार, अनुपान आहारादि लाते हुए आचार्य श्री जी को मैंने स्वयं देखा। जो दयालु होते हैं, वे सेवाभावी भी होते हैं, जो सेवाभावी होते हैं वे दयालु भी होते हैं, यह एक निश्चित सिद्धान्त है । प्रसन्नमुख और मधुरभाषी आचार्य व जी का मुखकमल सदा विकसित रहता था। आप स्वयं प्रसन्न रहते थे, सन्निकट रहने वालों को भी सदा प्रसन्न रखते थे, वाणी माधुर्य्य एवं प्रसादगुण युक्त थी। जब किसी को शिक्षा उपदेश देते थे, तब ऐसा प्रतीत होता था, मानो मुखारविन्द से मकरन्द टपक रहा हो, पीयूष की बून्दे कर्णेन्द्रिय से होती हुई हृदयघट में पड़ रही हों। कटुता कुटिलता, कठोरता न मन में थी न वचन में और न व्यवहार में। आपकी वाणी सत्यपूत तथा शास्त्रपूत होने से सविशेष मधुर थी। साहित्य सृजन और आगमों का हिन्दी अनुवाद पंजाब प्रान्त में जितने मुनिसुत्तम, पट्टधर एवं प्रसिद्ध वक्ता हुए हैं, उनमें साहित्य सृजन का और आगमों के हिन्दी अनुवाद करने का सबसे पहला श्रेय आपको प्राप्त हुआ है । आपने लगभग छोटी-बड़ी सब पुस्तकें ६० लिखी हैं। जैन न्याय संग्रह, जैनागमों में स्याद्वाद, जैनागमों में परमात्मवाद, जीवकर्म संवाद, . वीरत्थुई, जैनागमों में अष्टाङ्गयोग, विभक्ति संवाद, विशेष पठनीय है। आवश्यक सूत्र दोनों भाग, अनुयोगद्वार सूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारङ्ग, उपासकदशांङ्ग, स्थानांङ्ग, अन्तगड अनुत्तरोपपातिक,दशाश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प, निरयावलिका आदि ५ सूत्र, प्रश्नव्याकरण इनकी व्याख्या हिन्दी में की हैं नन्दीसूत्र आपके हाथो में ही है। समवायांग को सम्पूर्ण नहीं करने पाए। स्वाध्याय और स्मृति की प्रबलता आवश्यकीय कार्य के अतिरिक्त जब कभी उन्हें देखा, तब आगमों के अध्ययन-अध्यापन करते ही देखा है। स्वाध्याय उनके जीवन का एक विशेष अंग बना हुआ था । इसी कारण आप आडम्बरों तथा अधिक जन संसर्ग से दूर ही रहते थे। स्वाध्याय, ध्यान, समाधि, योगाभ्यास में अभिरूचि अधिक थी। आपका बाह्य तप की अपेक्षा आभ्यन्तर तप की ओर अधिक झुकाव रहा। स्मृति बड़ी प्रबल थी, जो ग्रन्थ, दर्शन, आगम, टीका, चूर्णि, भाष्य, वेद, पुराण, बौद्धग्रन्थ एक बार देख लिया, उसका मनन पूर्वक अध्ययन किया और उसकी स्मृति बनी। जब कभी अवसर आता तब तुरन्त स्मृति जग उठती थी। सूत्रों और ग्रन्थों पर तो ऐसी दृढ़ धारणा बन गई थी कि अन्तिम अवस्था में नेत्रज्योति मन्द होने पर भी, वही पृष्ठ निकाल देते, जिस स्थल में वह विषय लिखा हुआ है। इससे जान पड़ता है। कि आचार्य प्रवर जी आगम, चक्षुष्मान थे। 'तत्वार्थसूत्र जैनागमसमन्वय की रचना आपके आगमाभ्यास और स्मृतिका अद्भुत एवं अनुपम परिणाम है। तत्वार्थ सूत्र - जैनागमसमन्वय आचार्यप्रवरजी अपने युग में प्रकांड विद्वान हुए हैं। उनके आगमों का अध्ययन-मनन- चिन्तनअनुप्रेक्षानिदिध्यासन अनुपम ही था। वि० सं० १९८६ के वर्ष आप ने दस ही दिनों में दिगम्बर मान्य तत्त्वार्थसूत्र का समन्वय ३२ आगमों से पाठों का, उद्धरण करके यह सिद्ध किया है कि यह तत्त्वार्थसूत्र उमास्वातिजी 21
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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