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________________ • नम्रता और सहिष्णुता __ ये दोनों गुण उस व्यक्ति में हो सकते हैं जिसमें अभिमान और ममत्व न हो। आचार्य प्रवर जी के जीवन में मैंने कभी अभिमान नहीं देखा और न शरीर पर अधिकममत्व ही। आपका जब जन्म हुआ, तब मालूम पड़ता है कि विनय और नम्रता को साथ लिए हुए ही उत्पन्न हुए हैं। आप नवदीक्षित मुनि को भी जब सम्बोधित करते तब नाम के पीछे 'जी' कहकर ही बुलाते थे। नम्रता में आपने स्वर्ण को भी जीत रखा था। नम्रता आत्मा का गुण है। अहंकार आत्मा में कठोरता पैदा करता है। नम्रता से ही आत्मा सद्गुणों का भाजन बनता हैं जहां पूज्यवर में नम्रता की विशेषता थी, वहां सहिष्णुता में भी वे पीछे नहीं थे। परीषह-उपसर्ग सहन करने में मेरु के समान अडोल थे। अनेकों बार मारणान्तिक कष्ट भी आए, फिर भी मुख से हाय, उफ तक नहीं निकली। उस समय वेदना में भी जो उनकी दिनचर्या और रात्रिचर्या का कार्यक्रम होता था, उसमें कभी अन्तर नहीं पड़ने देते-"'अवि अप्पणेवि देहम्मि नायरन्ति ममाइयं" महानिग्रर्थ अपने देह पर भी ममत्व नहीं करते' मानो इस पाठ को आपने अपने जीवन में चरितार्थंकर रक्खा हो, सहन शीलता में आप अग्रणीय नेता थे। शक्ति और तेजस्विता उक्त दोनों गुण परस्पर विरोधी होते हुए भी आचार्य श्री जी में ऐसे मिल-जुल के रहते, जैसे कि तीर्थंकर समवसरण में सहज वैरी भी वैरभाव छोड़कर शेर और मृग एक स्थान में बैठे हुए धर्मोपदेश सुनते हैं। शेर को यह ध्यान नहीं आता कि मेरे पास मेरा भोज्य बैठा है और मृग को यह ध्यान नहीं आता कि मेरे पास मुझे ही खाने वाला पंचानन बैठा है। इसी प्रकार शान्तता वहीं हो सकती है, जहां क्रोध न हों बैर, क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष जहां हों, वहां शान्तता कहां? आप सचमुच शान्ति के महान सरोवर थे। दुःखदावानल से संतप्त व्यक्ति जब आपकी चरण-शरण में बैठता तो वह शान्तरस का अनुभव करने लग जाता। इस गुण ने आपके जीवन में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर रक्खा था। जहां शान्ति होती है, वहां तेजस्विता नहीं होती, जैसे कि चन्द्रमा, किन्तु आप में तेजस्विता भी थी। यदि कोई वादी अभिमानी दुर्विदग्ध कट्टरपन्थी भी आपके पास आता, तो वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। विद्वत्ता, सहनशीलता, नम्रता, संयम एवं गम्भीरता, इत्यादि अनेक गुणों ने आपको दिव्य तेजस्विता में देदिप्यमान बना रक्खा था। दयालुता और सेवाभावित्व साधुता सुकोमलता के साथ पलती है, शरीर में नहीं, हृदय में दया होनी चाहिये । वह साधु ही क्या है ? जिसमें दयालुता न हो, किन्तु फिर भी ये दो गुण, आपमें विशिष्ट थें । जहां आचार्यश्रीजी अपने दुःख को सहन करने में दृढ़तर थे, धैर्यवान थे, वहां दूसरों पर दयालुता की भी कुछ न्यूनता नहीं थी। आपने अपने जीवन में जैनाचार्य श्रीमोतीराम जी महाराज, गणपतिरायजी म०, श्रद्धेय जयरामदासजी म०, गुरूवर्य श्रीशालिग्राम जी महाराज की बहत वर्षों तक निरन्तर सेवा की। ग्लान, स्थविर, तपस्वी, नवदीक्षित की सेवा करने में आपने कभी भी मन नही चुराया। आगमों के अध्ययन एवं लेखन कार्य में संलग्न होने पर जब सेवा की आवश्यकता पड़ी, तब तुरन्त ही सेवा में उपस्थित हो जाते, सेवा से निवृत होकर पुनः चालू कार्य को पूरा करने में तत्पर हो जाते। छोटे से छोटे साधुओं की सेवा करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं था। १. दशकालिक सूत्र अ० छठा गा० २२।। 20
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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