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वाग्योग और श्रुत छाया-२. केवलज्ञानेनार्थान्, ज्ञात्वा ये तत्र प्रज्ञापनयोग्याः ।
तान् भाषते तीर्थंकरो, वाग्योगश्रुतं भवति शेषम् ॥६७।। तदेतत्केवलज्ञानं, तदेतन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षं, तदेतत्प्रत्यक्षज्ञानम् ॥सूत्र २३॥
पदार्थ-केवलनाणेणऽत्थे- केवल ज्ञान के द्वारा सर्वपदार्थों के अर्थों को नाउं-जानकर उनमे जे–जो पदार्थ तत्थ--वहां परणवणजोगे-वर्णन करने योग्य हैं ते–उनको तीर्थंकर देव भासह,-भाषण करते हैं, वइजोग-वही वचन योग है, तथा सेसं सुअं-शेष-अप्रधान श्रुत भवइ-होता है। से तं-यह केवलनाणं-केवल ज्ञान है, से तं-यह नोइंदियपच्चक्खं-नोइन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान है, से तं-यही पच्चक्खनाणं-प्रत्यक्षज्ञान है
___भावार्थ-केवल ज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानकर उनमें जो पदार्थ वहां वर्णन करने योग्य होते हैं, उन्हें तीर्थंकरदेव अपने प्रवचनों में प्रतिपादन करते हैं, वही वचन योग होता है अर्थात् वह द्रव्यश्रुत है, शेष श्रुत अप्रधान होता है।
- इस प्रकार यह केवलज्ञान का विषय सम्पूर्ण हुआ और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्षज्ञान का प्रकरण भी समाप्त हुआ ॥ सूत्र २३ ॥
____टीका-इस गाथा में सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान द्वारा पदार्थों को जानकर जो उनमें कथनीय हैं. उन्हीं का प्रतिपादन करते हैं। सभी पदार्थों का वर्णन करना उनकी शक्ति से भी बाहिर है। क्योंकि आयुष्य परिमित है, जिह्वा एक है और पदार्थ अनन्त-अनन्त हैं। जिन पदार्थों का वर्णन उनसे किया जा सकता है, वह प्रत्यक्ष किए हुए में से अनन्तवां भाग है। भवस्थ केवलज्ञान की पर्याय में रहकर जितने पदार्थों को वे कह सकते हैं, वे अभिलाप्य हैं, शेष अनभिलाप्य । यावन्मात्र प्रज्ञापनीय-कथनीय भाव हैं, वे अनभिलाप्य के अनन्तवें भाग परिमाण हैं, किन्तु जो श्रुतनिबद्ध भाव हैं, वे प्रज्ञापनीय भावों के भी अनन्तवें भाग परिमाण हैं, जैसे कहा भी है
"पण्णवणिजा भावा, अणंत भागो तु अणभिलप्पाणं । . पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबद्धो ।"
केवलज्ञानी जो वचन-योग से प्रवचन करते हैं, वह श्रुतज्ञान से नहीं, प्रत्युत भाषापर्याप्ति नाम कर्मोदय से करते हैं । श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक है और केवलज्ञानी में क्षयोपशम भाव का सर्वथा अभाव होता है । भाषापर्याप्ति नामकर्मोदय से जब वे प्रवचन करते हैं, तब उनका वह वाग्योग द्रव्यश्रुत कहलाता है । जो प्राणी सुन रहे हैं, उनमें वही द्रव्यश्रुत भावश्रुत का कारण बन जाता है। जिनकी यह मान्यता है कि तीर्थंकर भगवान ध्वन्यात्मक रूप से देशना देते हैं, वर्णात्मक रूप से नहीं ' इस गाथा से उनकी मान्यता का स्वतः खण्डन हो जाता है। वइजोग सुझं हवा सेसं उनका वचन-योग द्रव्यश्रुत होता है। भावश्रुत नहीं। इस विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं, जैसे कि-"अन्ये त्वेवं पठन्ति "वइजोग सुयं हवइ तेसिं" तस्यायमर्थः, तेषां श्रोतृणां भाव श्रुतकारणत्वात् , स वाग्योगः श्रुतं भवति, श्रुतमिति व्यवह्रियत इत्यर्थः इसका आशय ऊपर लिखा जा चुका है। इससे यह सिद्ध हुआ कि तीर्थंकर भगवान का वचन-योग द्रव्यश्रुत है। वह भावश्रुतपूर्वक नहीं, बल्कि केवलज्ञानपूर्वक होता है, भावश्रुत भगवान में नहीं, अपितु