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नन्दीसूत्रम्
पदार्थ - श्रह - अथ सन्वदन्व—–सम्पूर्णद्रव्य परिणाम - सब परिणाम भाव - औदयिक आदि भावों का बा – अथवा – वर्ण, गन्ध, रसादि के विण्णत्तिकारणं - जानने का कारण है और वह अणतं अनन्त है सासयं - सदैव काल रहने वाला है अपडिवाई - गिरने वाला नहीं और वह केवलं नाणं - केवलज्ञान एगविह :- एक प्रकार का है ।
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भावार्थ - केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यपरिणाम, औदयिक आदि भावों का अथवा वर्ण, गन्ध, रस आदि को जानने का कारण है, अन्तरहित तथा शाश्वत – सदा काल स्थायी व अप्रतिपाति — गिरने वाला नहीं है । ऐसा यह केवलज्ञान एक प्रकार का ही है ।। सूत्र २२ ॥
टीका - इस गाथा में केवल ज्ञान के विषय का उपसंहार किया गया है और साथ • केवलज्ञान का आन्तरिक स्वरूप भी बतलाया है। गाथा में " श्रह” शब्द अनन्तर अर्थ में प्रयुक्त किया गया है अर्थात् मनः पर्यवज्ञान के अनन्तर केवल ज्ञान का अथवा विकलादेश प्रत्यक्ष के अनन्तर सकलादेश प्रत्यक्ष का निरूपण किया गया है। प्रस्तुत गाथा में सूत्रकार ने केवलज्ञान के पांच विशेषण दिये हैं, जो कि विशेष मननीय हैं
सन्वदन्व-परिणाम-भावविरत्तिकारणं - सर्वद्रव्यों को और उनकी सर्व पर्यायों को तथा औदयिक आदि भावों के जानने का कारण - हेतु है ।
तं - वह अनन्त है, क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं तथा ज्ञान उनसे भी महान है । अतः ज्ञान को अनन्त
कहा है।
सासयं - जो ज्ञान सादि - अनन्त होने से शाश्वत है |
पडिवाई - जो ज्ञान कभी भी प्रतिपाति होने वाला नहीं है अर्थात् जिसकी महाज्योति किसी भी क्षेत्र व काल में लुप्त या बुझने वाली नहीं है । यहां यह शंका उत्पन्न होती है कि जब शाश्वत कहने मात्र - से केवल ज्ञान की नित्यता सिद्ध हो जाती है, फिर अप्रतिपाति विशेषण का उपन्यास पृथक् क्यों किया गया? इसका समाधान यह है - जो ज्ञान शाश्वत होता है, उसका अप्रतिपाति होना अनिवार्य है, किन्तु जो अप्रतिपाति होता है, उसका शाश्वत होने में विकल्प है, हो और न भी, जैसे अप्रतिपाति अवधिज्ञान । अतः शाश्वत का अप्रतिपाति के साथ नित्य सम्बन्ध है, किन्तु अप्रतिपाति का शाश्वत के साथ अविनाभाव तथा नित्य सम्बन्ध नहीं है । इसी कारण अप्रतिपाति शब्द का प्रयोग किया है।
एग विहं -- जो ज्ञान भेद-प्रभेदों से सर्वथा रहित और जो सदाकाल व सर्व देश में एक समान प्रकाश करने वाला तथा उपर्युक्त पांच विशेषणों सहित है, वह केवलज्ञान केवल एक ही है ।। सूत्र २२ ॥
वाग्योग और श्रुत
मूलम् - २. केवलनाणेणऽत्थे, नाउं जे तत्थ पण्णवणजोगे । ते भासइ तित्थयरो, वइजोग सुअँ हवइ सेसं ॥ ६७ ॥
सेत्तं केवलनाणं, से त्तं नोइंदियपच्चक्खं, से त्तं पच्चक्खनाणं ।। सूत्र २३ ॥