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________________ केवल ज्ञान का उपसंहार ५५५ प्रकरण में दिया जा चुका । अंत में सिद्धांतवादी कहते हैं-केबली जिससे देखता है, वह दर्शन है और जिससे जानता हैं, वह ज्ञान है, कहा भी है "जह पासइ तह पासउ, पासइ जेणेह दसणं तं से। जाणइ जेणं अरिहा, तं से नाणं ति घेत्तव्वं ॥" . नयों की दृष्टि से उक्त विषय का समन्वय जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण एकान्तर-उपयोग के अनुयायी हुए हैं, उनके शब्द निम्नोक्त हैं “कस्स व नाणुमयमिणं, जिणस्स जइ होज दोन्नि उवोगा। - नूणं न होन्ति जुगवं, जो निसिद्धा सुए बहुसो ॥" 'युगपदुपयोगवाद के समर्थक सिद्धसेन दिवाकर हुए हैं । वृद्धवादी आचार्य अभेदवाद के समर्थक रहे हैं, प्रवर्तक नहीं। वे केवलज्ञान के अतिरिक्त केवलदर्शन की सत्ता मानने से ही इन्कार करते रहे। उपाध्याय यशोविजय जी ने उपर्युक्त तीन अभिमतों का समन्वय नयों की शैली से किया है, जैसे कि ऋजुसूत्र नय के दृष्टिकोण से एकान्तर-उपयोगवाद उचित जान पड़ता है । व्यवहारनय के दृष्टिकोण से युगपद्-उपयोगवाद सत्य प्रतीत होता है। संग्रह नय से अभेद-उपयोगवाद समुचित जान पड़ता है। . कुछ आधुनिक विद्वानों का अभिमत है कि सिद्धसेन दिवाकर युगपद्वाद के नहीं, अभेदवाद के समर्थक हुए हैं । यह मान्यता हृदयंगम नहीं होती । क्योंकि हमारे पास प्राचीन उद्धरण विद्यमान हैं । __. उपर्युक्त केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में तीन अभिमतों को संक्षेप से या विस्तार से कोई जिज्ञासु जानना चाहे तो नन्दीसूत्र की चूर्णि, मलयगिरि कृत वृत्ति और हरिभद्र कृत वृत्ति अवश्य पढ़ने का प्रयास करे। जिनभद्रगणी कृत विशेषावश्यक भाष्य में भी उपर्युक्त चर्चा पाई जाती है। केवल ज्ञान का उपसंहार मूलम्-१. अह सव्वदव्वपरिणाम, भावविण्णत्तिकारणमणतं । सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ॥६६॥ सूत्र २२ ॥ छाया-१. अथसर्वद्रव्यपरिणाम-भावविज्ञप्तिकारणमनन्तम् । . शाश्वतमप्रतिपाति, एकविधं केवलं ज्ञानम् ॥६६।। सूत्र २२ ॥ १. भ० स० श०१४. उ०१० । श०१८, उ०८ । श० २५. उ०६, प्रकरण स्नातक | प्रज्ञापना सूत्र, पद ३०, स० ३१६ । २. एतेन यदवादीद् वादीसिद्धसेनदिवाकरो यथा--केवली भगवान् युगपज्जानाति पश्यति चेति तदप्यपास्तमवगन्तव्यमनेन सूत्रेण साक्षाद् युक्ति पूर्व ज्ञानदर्शनोपयोगस्य क्रमशो व्यवस्थापितत्वात् ।। -प्रज्ञापना सूत्र, ३० पद, मलयगिरि वृत्तिः । केचन सिद्धसेनाचार्यादयो भणन्ति किं ? युगपत् एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च कः१ केवली नत्वन्यः, नियमात्-नियमेन । -हारिभद्रीयावृत्तिःनन्दीसूत्रम् ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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