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नन्दीसूत्रम्
सिद्धान्तवादी का उत्तर विश्व में प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, फिर भले ही वह अणु हो या महान, दृश्य हो या अदृश्य, रूपी हो या अरूपी । विशेष धर्म भी अनन्तानन्त हैं और सामान्य धर्म भी। सभी विशेष धर्म केवल ज्ञान ग्राह्य हैं और सभी सामान्य धर्म केवल दर्शन ग्राह्य । इन दोनों में अल्प विषयक कोई भी नहीं हैं, दोनों की पर्यायें भी तुल्य हैं । उपयोग एक समय में दोनों में से एक में रहता है, एक साथ दोनों में नहीं। जब वह उपयोग विशेष की ओर प्रवहमान होता है तब उसे केवलज्ञान कहते हैं और जब सामान्य की ओर होता है तब उसे केवल दर्शन कहते हैं । इस दृष्टि से चेतना का प्रवाह एक समय में एक ओर ही हो सकता है, दोनों ओर नहीं।
२. देशज्ञान के विलय से जैसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वैसे ही देशदर्शन के विलय से केवलदर्शन। ज्ञान की पूर्णता को जैसे केवलज्ञान कहते हैं, वैसे ही दर्शन की पूर्णता को केवल दर्शन । यदि दोनों को एक माना जाए तो केवल दर्शनावरणीय की कल्पना करना ही निरर्थक सिद्ध हो जायगा। अतः सिद्ध हुआ कि केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों स्वरूप से ही पृथक हैं ।
३. छद्मस्थकाल में जब ज्ञान और दर्शन रूप विभिन्न दो उपयोग पाये जाते हैं, तब उनकी पूर्ण अवस्था में दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? अवधिज्ञान और अवधिदर्शन को जब तुम एक नहीं मानते, तब अर्हन्त भगवान में केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं ?
४. प्रवचन करते समय केवली कभी केवलज्ञान पूर्वक प्रवचन करता है और कभी केवलदर्शन पूर्वक भी, एक ही घंटे में अनेकों बार उपयोग में परिवर्तन होता है। यह कोई नियम नहीं है कि प्रवचन केवलज्ञान पूर्वक ही होता है। भवस्थ केवली दो प्रकार की भाषा बोलता है, सत्य और व्यवहार किन्तु ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक दोषाभाव होने से वह, असत्य और मिश्र भाषा का प्रयोग नहीं करता। जिस क्षण में सत्य भाषा का प्रयोग करता है, उस समय व्यवहार का नहीं, जब व्यवहार भाषा का प्रयोग करता है तब सत्य का नहीं । वह भी दो भाषाओं का एक साथ प्रयोग करने में असमर्थ है। जैसे सत्य और व्यवहार भाषा विभिन्न दो भाषाएं हैं, एक नहीं. वैसे ही ज्ञान और दर्शन भी दो विभिन्न उपयोग हैं, एक नहीं।
५. नन्दी सूत्र में मुख्यतया पांच ज्ञान का वर्णन है, चार दर्शनों का नहीं । केवलज्ञान की तरह केवलदर्शन भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है । इसकी पुष्टि के लिए सोमिल ब्राह्मण के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा है-सोमिल ! मैं ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा द्विविध हैं। भगवान के इस कथन से स्वयं सिद्ध है, कि दर्शन भी ज्ञान की तरह स्वतंत्र सत्ता रखता है। नन्दीसूत्र में सम्यकश्रत के अंतर्गत उप्पन्न नाण-दसणधरेहिं इसमें ज्ञान के अतिरिक्त दर्शनपद भी साथ ही जोड़ा है। इससे भी यही सिद्ध होता है, कि केवली में दर्शन अपना अस्तित्व अलग रखता है। केवलज्ञान और केवलदर्शन यदि दोनों का विषय एक ही होता तो भगवान महावीर ऐसा क्यों कहते कि मैं द्विविध हूं । जब मन पर्यवज्ञान का कोई दर्शन नहीं तब 'पास' क्रिया का प्रयोग क्यों किया? इसका उत्तर मनःपर्यव ज्ञान के
१. भगवती सूत्र, श०१८ उ०१० ।