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पम्पर-सिद्ध-केवलज्ञान
भणियं चिय पण्णत्ती-पण्णवणाईसु जह जिणो समयं ।
जं जाणइ नवि पासइ, तं अणुरयणप्पभाईणं ॥" जिस समय केवली किसी अणु को या रत्नप्रभापृथ्वी को जानता है, उसी समय देखता नहीं । क्योंकि कहा भी है-जुगवं दो नत्थि उवोगा बारह उपयोगों में एक साथ, एक समय में, किसी में भी दो उपयोग नहीं पाये जाते, वैसे ही किसी भी विवक्षित केवली के एक समय में एक ही उपयोग हो सकता है, दो नहीं। औपशमिकलब्धि, क्षायोपशमिकलब्धि, क्षायिकलब्धि, सूक्ष्मसंपरायचारित्र और सिद्धत्व प्राप्ति का पहला समय ये सब साकार-उपयोग में ही होते हैं । तेरहवें गुणस्थान में सर्व प्रथम केवल ज्ञान में ही उपयोग होता है। कहा भी है-"उत्पन्न नाण दंसण धरेहि" इत्यादि अनेक पाठ आगमों में विहित हैं, उनसे यही सिद्ध होता है कि पहले ज्ञान में उपयोग होता है। छद्मस्थ काल में मनःपर्यवज्ञान के अतिरिक्त अन्यज्ञान दर्शन में उपयोग की भजना है। सम्यक्त्व की उत्पत्ति नियमेन साकार उपयोग में होती है, निराकार उपयोग में नहीं। निराकार-उपयोग में न उत्थान होता है और न पतन, किन्तु साकार-उपयोग में उपर्युक्त दोनों का होना संभव है। यह कथन सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की अपेक्षा से समझना चाहिए, न कि भूयस्कार तथा अल्पतर की अपेक्षा से, क्योंकि दसवें गुणस्थान में विशुध्यमान तथा संक्लिश्यमान दोनों अवस्थाओं में साकार उपयोग ही होता है।
अभिन्न-उपयोगवाद का पूर्व पक्ष १. केवलज्ञान इतना महान है, जिससे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है, सामान्य और विशेष सभी उसके विषय हैं । ऐसी स्थिति में केवलदर्शन का कोई महत्व ही नहीं रहा, वह अकिंचित्कर होने से उसकी गणना अलग करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
.. २. जैसे देशज्ञान के विलय होने से केवलज्ञान ज्ञान उत्पन्न होता है और उक्त चारों केवल ज्ञान में अन्तर्भूत हो जाते हैं, वैसे ही चारों दर्शनों का अन्तर्भाव भी केवलज्ञान में हो जाता है। अतः केवल दर्शन को अलग मानने की कोई आवश्यकता नहीं।
३. अल्पज्ञता में साकार उपयोग और अनाकार उपयोग एवं क्षायोपशमिक भाव की विचित्रता तथा विभिन्नता के कारण दोनों उपयोगों में परस्पर भेद हो सकता है, किन्तु क्षायिक भाव में दोनों में कोई विशेष अन्तर न रहने से सिर्फ केवलज्ञान ही शेष रह जाता है । अतः सदा-सर्वदा केवलज्ञान में ही केवली का उपयोग रहता है।
४. केवल दर्शन का अस्तित्व यदि अलग माना जाए, तो वह सामान्य मात्र ग्राही होने से अल्पविषयक सिद्ध हो जायेगा, जब कि आगम में केवल ज्ञान को अनन्त विषयक कहा है।
५. जब केवली प्रवचन करते हैं, तब वह केवल ज्ञान पूर्वक होता है । इस से भी अभेद पक्ष ही सिद्ध होता है।
६. नन्दी सूत्र में केवल दर्शन का स्वरूप नहीं बतलाया तथा अन्य सूत्रों में भी केवल दर्शन का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता। इससे भी यही सिद्ध होता है, कि केवलदर्शन केवलज्ञान से अपना अलग अस्तित्व नहीं रखता । इस विषय में शंका हो सकती है कि केवल ज्ञान के प्रकरण में पासइ का प्रयोग क्यों किया है ? इसी से केवल दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होता है, यह कथन भी युक्ति संगत नहीं है। क्योंकि मनःपर्यव ज्ञान के प्रकरण में भी पासइ का प्रयोग किया है जब कि उस का भी कोई दर्शन नहीं है।