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________________ 195 नन्दीसूत्रम् ८वें देवलोक तक जा सकते हैं । अतः अधोगति और ऊर्ध्वगति का परस्पर साम्यभाव नहीं है । अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला तन्दुल मच्छ सातवीं नरक में जा सकता है, किन्तु मनुष्य नहीं, क्योंकि सातवीं नरक पृथक्त्व वर्ष की आयु से कम आयु वाला मनुष्य नहीं जा सकता । अन्तगडदशा सूत्र के पाँचवें, सातवें तथा आठवें वर्ग में जिन साध्वियों ने अन्त समय में केवल ज्ञान प्राप्त करके सिद्धत्व प्राप्त किया है, उनका स्पष्ट उल्लेख है । कितनी उत्कृष्ट साधना की है ? तप, संग्रम से किस प्रकार कर्मों पर विजय प्राप्त की है ? यह भी विश जनों को ज्ञात ही है। चन्दनवाला प्रमुख ३६ सहस्र साध्वियां महावीर के शासन में हुईं, उन में से १४०० साध्वियों ने मोक्ष प्राप्त किया, यह भी आगमों में स्पष्टोल्लेख है। यह ठीक है, पुरुष की अपेक्षा से स्त्रीलिंग वाले जीव बहुत कम सिद्ध होते हैं । जहाँ पुल्लिंग वाले एक समय में १०८ सिद्ध हो सकते हैं, वहाँ स्त्रीलिंग में २० हो सकते हैं, किन्तु आगमों में कहीं भी स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं किया, अपितु विधायक पाठ अनेक मिलते हैं । स्त्री मुक्ति का सर्वथा निषेध करना अनेकान्तवाद को ही तिलाञ्जलि देने के तुल्य है । ज्यों-ज्यों मोहकर्म की प्रकृतियों का ह्रास होता जाता है, त्यों-त्यों चारित्र की विशुद्धि होती जाती है। ऐसी प्रक्रिया जिसके जीवन में चल रही है, वही अवेदी बन सकता है। अपगत वेदी के लिए पुल्लिंग शब्द का ही प्रयोग किया जाता है, स्त्रीलिङ्ग शब्द का नहीं। जब १६ वें द्रव्य तीर्थंकर घर में थे, तब उन्हें "मल्ली विदेहवरकन्ना" ऐसा कहा है, किन्तु केवलज्ञान हो जाने पर "मल्लि गं रहा जिणे केवली" शब्दों का प्रयोग किया है। उन्हें तीर्थंकर कहा है, तीर्थंकरी नहीं । उन्हों ने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चार भाव तीर्थ की स्थापना की जिज्ञासुओं को एतद् विषयक चर्चा ग्रन्थान्तर से जाननी चाहिए। ६. पुरुषलिङ्गसिद्ध - पुरुष की आकृति में रहते हुए मोक्ष पाने वाले पुरुषलिङ्गसिद्ध कहलाते हैं । १०. नपुंसकलिङ्गसिद्ध – नपुंसक की आकृति में रहते हुए मोक्ष जाने वाले नपुंसकलिंग सिद्ध कहलाते हैं। नपुंसक दो तरह के होते हैं, एक स्त्रीनपुंसक और दूसरे पुरुषनपुंसक यहां दूसरे प्रकार के नपुंसक का अधिकार है । ११. स्वलिंगसिद्ध - साधु का मुखवस्त्रिका, रजोहरण रजोहरण आदि जो भी भ्रमण निर्ग्रन्थों का वेष होता है, वह लिंग कहलाता है । जो स्वलिंग में सिद्ध हुए हैं, उन्हें स्वलिंग सिद्ध कहते हैं । १२. अन्यलिंगसिद्ध जिनका बाह्य वेष परिव्राजकों का है, किन्तु क्रिया आगमानुसार करके सिद्ध बने हैं, वे अन्यलिगसिद्ध कहलाते हैं। १३. गृहस्थलिंगसिद्ध गृहस्थ बेष में मोक्षं पाने वाले सिद्ध गृहस्थलिंग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे मरुदेवीमाता | १४. एकसिद्ध – एक - एक समय में एक-एक सिद्ध होने वाले एक सिद्ध कहलाते हैं । १५. अनेक सिद्ध – एक समय में दो से लेकर उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होने वाले अनेक सिद्ध कहलाते हैं । शंका -- तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध जब कि इन्हीं दो भेदों में सबका अन्तर्भाव हो सकता है, फिर शेष १३ भेदों का वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ? -- समाधान यह ठीक है कि उक्त भेदों में तीर्थंकर सिद्ध के अतिरिक्त शेष भेदों का समावेश हो किन्तु जिज्ञासुओं को केवल दो भेदों के जानने से शेष भेदों का स्पष्ट रूप से परिज्ञान नहीं हो सकता है,
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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