SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध केवलज्ञान -१४५ और चारित्र हैं। इनकी पूर्ण आराधना करने से ही जीव सिद्ध होते हैं। बिना आराधना किए पुरुष भी सिद्ध नहीं हो सकता । क्षुधा की निवृत्ति खाद्य पदार्थ से हो सकती है, वह पदार्थ चाहे सोने के थाल में हो या कांसी के थाल में, चाहे पत्तल में ही क्यों न हो । अभिप्राय खाद्य पदार्थ से है न कि आधार पात्र से, इसी प्रकार सूत्रकार का अभिप्राय गुणों से है न कि लिंग से । कभी-कभी शिक्षा में महिलाएं पुरुषों से भी सर्वप्रथम रहती हैं। वे अपनी शक्ति से शेरों को भी पछाड़ देती हैं, डाकुओं के मुकावले में तथा शत्रुओं के मुंकावले में विजय प्राप्त करती हैं। फिर भी महिलाएं रत्नत्रय की सर्वोत्कृष्ट आराधना नहीं कर सकतीं, ऐसा कहना केवल मतपक्ष ही है, एकान्तवाद है, अनेकान्तवाद नहीं। यदि ऐसा कहा जाए कि स्त्री नग्न नहीं हो सकती, क्योंकि वह वस्त्र सहित होती है, वस्त्र परिग्रह है, परिग्रही को मोक्ष नहीं, तो यह भी उनका कहना समीचीन नहीं है । क्योंकि आगम में कहा है"मुच्छा परिग्गहो वुत्तो'" ममत्त्व ही परिग्रह है। मूर्छा रहित स्वर्ण के सिंहासन पर बैठे हुए तीर्थंकर भी निष्परिग्रही हैं। ___"मूर्छा परिग्रहः"२-यदि मन में ममत्व नहीं है, तो बाह्य वस्त्र आदि परिग्रह नहीं बन सकते । जब बाह्य उपकरणों पर ममत्व होता है, तभी वे उपकरण परिग्रह बनते हैं, स्वयमेव नहीं । आगम में भगवान महावीर के वाक्य हैं "जं पि वत्थं वा पायं वा, कंबलं पायपुंच्छणं । तं पि संजमलज्जट्ठा, धारेंति परिहरंति य । न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥" ' संयम और लज्जा के लिए जो मर्यादित उपकरण रखे जाते हैं, उन्हें परिग्रह में सम्मिलित करना, यह अनेकान्तवादियों का लक्षण नहीं है । यदि ऐसा कहा जाए कि सर्वोत्कृष्ट दुःख का स्थान ७वीं नरक है और सर्वोत्कृष्ट सुख का स्थान मोक्ष है। जब स्त्री ७वीं नरक में नहीं जा सकती है, तो फिर निर्वाण पद कैसे प्राप्त कर सकती है ? क्योंकि उसमें तथाविध सर्वोत्कृष्ट मनोवीर्थ का सर्वथा अभाव है। यह कथन भी एकान्त वादियों की तरह अप्रमाणिक है, क्योंकि सातवीं नरक की प्राप्ति उत्कृष्ट पाप का फल है और पुण्य का फल उत्कृष्ट सर्वार्थ सिद्ध विमान में देवत्व का होना, किन्तु मोक्षसुख तो आठ कर्मों के क्षय होने से उपलब्ध होता है, स्त्री का मनोवीर्य कर्मक्षय करने में पुरुष के समान ही होता है । यद्यपि गति-आगति मनोवीर्य के अनुसार होती है, तदपिगति का अन्तर अवश्य बताया है। परन्तु यह भी कोई नियम नहीं है कि जो व्यक्ति किसी कार्य को नहीं कर सकता, वह अन्य कार्य भी नहीं कर सकता? जैसे जो कृषि कर्म नहीं कर सकता, वह शास्त्रों का अध्ययन भी नहीं कर सकता । बस, यह भी कोई नियम नहीं है, जो सातवीं नरक में नहीं जा सकता, वह मुक्त भी नहीं हो सकता। जैसे भूजपुर दूसरी नरक तक जा सकता है, खेचर तीसरी तक, स्थलचर तिर्यंच चौथी तक, उरपुरसर्प पाँचवीं नरक तक जा सकता है। परन्तु सभी संज्ञी तिर्यंच, पंचेन्द्रिय भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सहस्रार १. दशवकालिक सू० अ० ६, गाथा २१ । २. तत्त्वार्थसूत्र अ०७ वां सू० १२ वां ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy