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________________ नन्दीसूत्रम् काललब्धि पूर्ण होने पर स्वतः आभ्यन्तरिक उपादान कारण तैयार होने पर सिद्ध होने वाले बहुत ही कम संख्या में होते हैं । १४४ ३. तीर्थंकरसिद्ध – विश्व में लौकिक तथा लोकोतरिक पदों में तीर्थंकर पद सर्वोपरि है। इस पद की प्राप्ति का उपक्रम अन्तः कोटाकोटी सागर पहले से ही प्रारम्भ हो जाता है। धर्मानुष्ठान की सर्वोत्कृष्ट रसानुभूति से तीर्थंकर नाम गोत्र का जब बन्ध हो जाता है, तब तीसरे भव में नियमेन तीर्थंकर बन जाने का अनादि नियम है। तीर्थंकर का जीवन गर्भवास से लेकर निर्वाण पर्यन्त आदर्श एवं कल्याणमय होता है, जब तक उन्हें केवल ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक वे धर्मोपदेश नहीं करते । केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही प्रवचन करते हैं। प्रवचन से प्रभावित हुए विविष्ट विकसित पुरुष दीक्षित होकर गणधर बनते हैं, तब भावतीर्थ की स्थापना करने से उन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। जो तीर्थंकर पद पाकर सिद्ध बने हैं, उन्हें तीर्थंकर सिद्ध कहते हैं । ४. श्रतीर्थंकरसिद्ध - तीर्थंकर के व्यतिरिक्त अन्य जितने लौकिक पदवीधर चक्रवर्ती, बलदेव, माण्डलीक, सम्राट् और लोकोत्तरिक आचार्य, उपाध्याय, गणधर, अन्तकृत केवली तथा सामान्य केवली इन सबका अन्तर्भाव अतीर्थंकर सिद्ध में हो जाता है । ५. स्वयंबुद्धसिद्ध — जो बाह्य निमित्त के बिना किसी के उपदेश, प्रवचन सुने बिना ही जातिस्मरण, अवधिज्ञान के द्वारा स्वयं विषय कषायों से विरक्त हो जाएँ, उन्हें स्वयंबुद्ध कहते हैं । इसमें तीर्थं कर तथा अन्य विकसित उत्तम पुरुषों का भी अन्तर्भाव हो जाता है अर्थात् जो स्वयमेव बोध को प्राप्त हुए हैं, उन्हें स्वयं बुद्ध कहते हैं। ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध उपदेश-प्रवचन श्रवण किए बिना जो बाहिर के निमित्तों द्वारा बोध को प्राप्त हुए हैं, जैसे कि नमिराज ऋषि, उन्हें प्रत्येक बुद्ध सिद्ध कहते हैं। स्वयं बुद्ध और प्रत्येकबुद्ध दोनों इन में । बोथि, उपधि, घुत और लिंग इन चार विशेषताओं का परस्पर अन्तर है जिज्ञासुओं को विशेष व्याख्या श्रुत मलयगिरी वृत्ति में देख लेनी चाहिए। ७. बुद्धबोधितसिद्ध – आचार्य आदि के द्वारा प्रतिबोध दिए जाने पर जो सिद्ध गति को प्राप्त करें, उन्हें बुद्धवोषित कहते हैं। अतिमुक्त कुमार, चन्दनं बाला, जम्बूस्वामी इत्यादि सब इसी कोटि के सिद्ध हुए हैं । स्त्रीत्व तीन प्रकार का बतलाया सिद्ध होना नितान्त असंभव है, " ८. स्त्रीलिङ्ग सिद्ध यहां स्त्रीलिङ्ग शब्द स्त्रीत्वका सूचक है। गया है, एक वेद से, दूसरा निति से और तीसरा वेष से वेद उदय से क्योंकि जब स्त्री में पुरुष के सहवास की इच्छा हो तब उसे स्त्री वेद कहते हैं । वेदोदय में सिद्धत्व का सर्वथा अभाव ही है । वेष (नेपथ्य) की कोई प्रामाणिकता नहीं है । क्योंकि स्त्री वेष में पुरुष एवं मूर्ति भी हो सकती है। अतः यहां शास्त्रकार को शरीरनिति तथा स्त्री के अंगोपाङ्ग से प्रयोजन है। चूर्णि कार ने भी लिखा है कि स्त्री के आकार में रहते हुए जो मुक्त हो गए हैं, वे स्त्रिलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं, जैसे कि "इत्थीए लिङ्ग इपिलिङ्ग इत्थी उलक्खन्ति दुतं भवति तं च विविह बेयो, सरीरनिवली, नेवत्यं च इद्द सरीरनिव्वसीए अहिगारो न येय, नेवत्येहिं ति ।" स्त्रीलिङ्ग मोक्ष में बाधक नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष प्राप्ति का सरल मार्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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